(अनुच्छेद लेखन) जातिगत भेद–भाव की समस्या
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जाति प्रथा के कारण ही भारत के विभिन्न धार्मिक समूह सामाजिक और राजनीतिक रूप से एक दूसरे के समीप नहीं आ सके जिसके कारण एक सुदृढ़ समाज का निर्माण नहीं हो सका। जाति प्रथा ने अंततोगत्वा देश में विभाजन ही पैदा किया। 'जाति प्रथा उन्मूलन' नामक ग्रंथ में अंबेडकर कहते हैं कि 'प्रत्येक समाज का बुद्धिजीवी वर्ग यह शासक वर्ग ना भी हो फिर भी वो प्रभावी वर्ग होता है।' केवल बुद्धि होना यह कोई सद्गुण नहीं है। बुद्धि का इस्तेमाल हम किस बातों के लिए करते हैं इस पर बुद्धि का सद्गुण, दुर्गुण निर्भर है और बुद्धि का इस्तेमाल कैसा करते हैं यह बात हमारे जीवन का जो मकसद है उस पर निर्भर है। यहां के परंपरागत बुद्धिजीवी वर्ग ने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल समाज के फायदे के लिए करने की बजाए समाज का शोषण करने के लिए किया है।
जाति ईंटों की दीवार या कांटेदार तारों की लाइन जैसी कोई भौतिक वस्तु नहीं है जो हिन्दुओं को मेल मिलाप से रोकती हो और जिसे तोड़ृना आवश्यक हो। जाति एक धारणा है और यह एक मानसिक स्थिति है, अतः जाति को नष्ट करने का अर्थ भौतिक रुकावटों को दूर करना नहीं है। जातिय श्रेष्ठता के दंभ के कारण एक मानव दूसरे मानव से अलग रहता है।
जाति प्रथा कई अनैतिक सामाजिक प्रथाओं और नैतिकता के निम्न स्तर के लिए भी जिम्मेदार बन गई। जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई, लोगों को अपनी आजीविका कमाने के लिए अंडरहैंड साधनों और अनैतिक प्रथाओं को अपनाना पड़ा।
जातिवाद राष्ट्र के विकास में मुख्य बाधा है। जो सामाजिक असमानता और अन्याय के प्रमुख स्रोत के रूप में काम करता है। इसका समाधान अंतरजातीय विवाह के रूप में हो सकता है। अंतरजातीय विवाह से जातिवाद की जड़ें कमजोर होंगी। आधुनिक समय में किसी भी व्यक्ति के जीवन में जाति उसी समय देखी जाती है, जब उसका विवाह होता है। यदि इस बुराई का समूल नाश करना है तो ऐसे कदम उठाने होंगे जो विवाह के समय जाति की संगतता समाप्त कर दे।
कम से कम राजपत्रित पदों पर काम करने वाले व्यक्तियों से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे अपने आप ही जाति की सीमित परीधि से बाहर अपना विवाह करें। अंतरजातीय विवाह करने वाले को सरकारी पदों पर नियुक्ति में वरीयता दी जानी चाहिए। संविधान में संशोधन कर ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए जिसके तहत राजपत्रित पदों पर उन्ही युवक युवतियों को चुना जाएं जो अपनी जाति के बाहर विवाह करने को तैयार हों।
जाति उन्मूलन के लिए राजनीतिक नेतृत्व की दृढ़ इच्छाशक्ति और ईमानदारी आवश्यक है। राजनीतिक व्यक्तियों या नेतृत्व को जातिवादी संस्थाओं, संगठनों और आयोजनों से दूर रहना चाहिए तथा सरकार द्वारा जातिवादी संगठनों, सभाओं और आयोजनों को हतोत्साहित करना चाहिए, किंतु भारतीय राजनीति में यह आज भी बहुत दुखद है कि उनके विराट व्यक्तित्व को एक जाति विशेष तक सीमित करने की कोशिश की जाती है।
समझना होगा कि जब तक समाज से जातिवाद का अंधेरा नहीं मिटेगा, तब तक राष्ट्रीय एकता का सूरज उदित नहीं होगा। देखने पर मिलता है कि भारत में कुल जातियों की संख्या 6743 है। उप जातियां इसमें शामिल नहीं है। यह प्रथा पिछले 3500 वर्षों से अक्षुण्ण है। लोकतांत्रिक व्यवस्था ही इसे दूर करने का सबसे बड़ा औजार बन सकता है, लेकिन सैकड़ों साल से चलने वाली किसी परंपरा को इतने कम समय मे दूर कर लेना भी आसान नहीं है।
भारत सरकार ने तथा संविधान निर्माताओं ने कुछ नीतियों एवं नियमों से इसे दूर करने का प्रयास किया, परंतु यह व्यवस्था भारतीय समाज मे इस कदर व्याप्त है जैसे दूध मे मिलावट का पानी। इस मिलावट को दूर करने के लिए दक्षता के साथ-साथ कुछ कठोर कदम उठाने की भी जरूरत है जिससे की आज तक भारतीय राजनीतिज्ञ बचते आए हैं क्योंकि इससे उनका राजनीतिक जीवन ही दांव पर लग सकता है।
बुद्ध, नानक, कबीर, अंबेडकर आदि ने तो अपने-अपने काल मे अपना पूरा प्रयास किया लेकिन अब फिर से जरूरत है ईमानदार प्रबुद्धों की जो इस समस्या को राष्ट्र के राजनीतिक एवं सामाजिक पटल पर रखकर इसके सामाधानों पर चर्चा करें। अगर सचमुच हम समानता का जातिविहीन समाज बनाना चाहते हैं तो एक नेशनल नैरेटिव के साथ सामाजिक न्याय का एक रैशनल प्रारूप बनाना होगा। इसके लिए विवाद कम विचार ज्यादा करने की जरूरत है।