Hindi, asked by savitriindu01, 3 months ago

अनुच्छेद लेखन । वर्तमान समय में विद्यालयों में अनुशासनहीनता​

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Answered by anuradhadevi2021
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अनुशासन की पहली पाठशाला परिवार होता है और दूसरी विद्यालय। इसके बिना एक सभ्य समाज की कल्पना करना दुष्कर है। एक स्वस्थ समाज के निर्माण और संचालन में उस आबादी का बड़ा हाथ होता है, जो अपने किसी भी रूप में अनुशासनरूपी सूत्र में गुंथे होने से संभव हो पाता है। दरअसल, अनुशासन की प्रक्रिया रैखिक ही नहीं, बल्कि चक्रीय भी होती है। वह पीछे की और लौटती है, पर ठीक उसी रूप में नहीं। ऐसे में अगर अनुशासन को सरल रेखा खींच कर उसका स्वरूप निर्धारित करने का प्रयास किया जाए तो उसमें दुर्घटना की संभावनाएं हैं। जबकि ‘अनुशासन के बिना न तो परिवार चल सकता है और न ही संस्था और राष्ट्र।’ इसकी व्यापकता का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि अनुशासन शब्द समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार से लेकर ‘विश्व-समाज’ की अवधारणा तक अपने विभिन्न अर्थों के साथ किसी न किसी रूप में जुड़ा होता है। लेकिन अपने मूल अर्थ में अनुशासन का अभिप्राय एक ही होता है। देखना यह है कि क्या अनुशासन का स्वरूप भी सभी जगह एक-सा होता है, या परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व आदि हर स्तर पर इसका स्वरूप भी अलग-अलग होगा।

‘किसी भी राष्ट्र का परिचय उसके अनुशासनबद्ध नागरिकों से मिल जाता है’। पर उसी राष्ट्र की सुरक्षा के लिए एक सेना भी होती है। सेना का अपना अनुशासन होता है, जहां नियमों पर कड़ाई से पालन करवाया जाता है। सुरक्षा के प्रश्न के चलते यहां अनुशासन के अपने मानदंड होते हैं, जिनसे कोई समझौता नहीं किया जा सकता। पर अनुशासन का सबसे सरलतम रूप समाज में दिखाई देता है, जहां लोग आपसी सद्भाव से बिना किसी टकराव के रहते हैं। आखिर वे कौन-से कारण होते हैं, जिनके चलते ‘शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व’ की भावना किसी भी समाज की रीढ़ होती है? विभिन्न समुदायों को मिला कर समाज बनता है, फिर राष्ट्र और विश्व। हर क्षेत्र में विविधता होने पर भी ‘विश्व-मानव’ और ‘विश्व-समाज’ की परिकल्पना की जाती है, जिसका मूल अनुशासन में निहित है। क्षेत्र विशेष के अनुसार अनुशासन की सीमाएं भी निर्धारित होती हैं।

जबकि शिक्षा का उद्देश्य समाज को बेहतर नागरिक प्रदान करना होता है, जो स्वस्थ समाज के निर्माण में भागीदार बनें। अनुशासन का लक्ष्य शिक्षा में नैतिकता का समर्थन करना है तो भले ही अनुशासन की पहली पाठशाला परिवार होता है, पर एक स्वस्थ समाज के निर्माण में निर्णायक भूमिका उसके विद्यालय निभाते हैं। ऐसे में यह प्रश्न और महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि हमारे विद्यालयों में अनुशासन का कौन-सा स्वरूप होना चाहिए। इससे विद्यार्थियों में जहां शील, संयम, नम्रता और ज्ञान पिपासा जैसे गुणों का विकास होता है, वहीं विद्रोह की भावना के भी जन्म लेने के आसार बराबर बने रहते हैं। अधिकतर लोग अनुशासन का अर्थ किसी सैन्य परिसर, वहां के कठोर नियम और उनके पालन में ही खोजते हैं। इन्हीं पूर्वग्रहों के सबसे बड़े शिकार हमारे विद्यालय होते हैं। क्या किसी सैन्य परिसर के नियम और कड़ाई से उनकी अनुपालना अबोध या समझदार विद्यार्थियों की कुछ भी सीखने में मदद कर सकते हैं?

ज्यादातर शिक्षक विद्यालय में अनुशासन के सही अर्थों से अनभिज्ञ होते हैं। उन्हें यह कहते सुना जा सकता है कि बिना डर के बच्चे पढ़ेंगे कैसे! और खेलने से क्या होता है? अधिकतर विद्यार्थी खेलों में रुचि रखते हैं और इस कई ऐसे मौके आते हैं जब विद्यार्थी एक खिलाड़ी के रूप में खुद से नियमों का पालन करता है। वह आगे चल कर समाज के एक नागरिक के रूप में भी जारी रहता है। वास्तव में खेल ‘आत्मप्रेरित अनुशासन’ प्राप्ति का सबसे उपयुक्त माध्यम हैं, जिसे गांधीजी ने व्यक्तिगत अनुशासन कहा है। जब तक कोई भी व्यक्ति अपने आप अनुशासन और नियम-पालन में बंध नहीं जाता, तब तक उसे दूसरे से वैसा कराने की आशा करना व्यर्थ है। एक प्राचीन कहानी है, जिसमें अपने बच्चे के अधिक मिठाई खाने की शिकायत लेकर आई मां को गुरु नानक सात दिन बाद आने का समय देते हैं। इन सात दिनों तक खुद मीठा खाना छोड़ कर ही वे बालक को मीठे के अवगुणों के बारे में समझाते हैं।

आत्मप्रेरित अनुशासन ही मानवीय मूल्यों के लिए जगह बना पाता है। पहले शिक्षा के अंतर्गत आने वाले ‘सामुदायिक कार्यों में भागीदारी’ और ‘विद्यार्थियों के व्यवहार’ को महज खानापूर्ति के रूप में किया जाता था, जो अनुशासन विषयक पूर्णांकों के संबंधित है। जैसा कि उसके अंकों का प्राप्तांकों से कोई संबंध नहीं था। पर अब जबकि शिक्षा व्यवस्था में अपेक्षित बदलाव के तहत ‘सतत एवं व्यापक मूल्यांकन’ जैसी अवधारणा का समावेश हो चुका है, विद्यार्थी का संपूर्ण मूल्यांकनकर्ता उसका शिक्षक ही होगा। ऐसे में शिक्षकों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि वे विद्यार्थियों के व्यवहार (अन्य विद्यार्थियों एवं शिक्षकों से) और सामुदायिक गतिविधियों वाले खानों (कॉलम) को गंभीरता से लें। फिर हो सकता है कि पाठ्यपुस्तकों से इतर मानव-मूल्यों को सही अर्थों में विद्यार्थियों तक प्रेषित करने में सफल हो पाएं।

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