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जाति प्रथा हिन्दूत्व में व्यवहारिकता से जुड़ा तथ्य है। इसकी उत्पत्ति, मूल्यांकन, और अस्तित्व भारत के लिये समान्य है। जाति प्रथा बहुत हद तक जातिवाद की पश्चिमी अवधारणा जैसी है जहां लोगों के साथ भेदभाव उनके शरीर के रंग के कारण होता है; इसी तरह, जाति प्रथा में, भेदभाव जन्म के आधार पर किया जाता है जैसे: व्यक्ति का सामाजिक स्तर उसका/उसकी जाति के आधार पर परिभाषित किया जाता है जिसमें उसका जन्म होता है। दूसरे शब्दों में, जाति के आधार पर, व्यक्ति के जन्म के समय ही निश्चित होता है कि वो समाज के उच्च या निम्न स्तर से संबंधित है।
ये बहुत शर्म की बात है कि, अब 21वीं शताब्दी में भी और इस आयु और समय में जबकि मानव समाज ने वैज्ञानिक तौर पर इतनी तरक्की की है कि लोग मंगल ग्रह पर भी जमीन खरीदने की योजना बना रहे हैं, भारतीय समाज तब भी जाति प्रथा जैसी प्राचीन व्यवस्था में विश्वास रखता है
जाति या वर्ण प्रथा पूरी तरह से भारतीय तथ्य है और विशेषरुप से प्रथा हिन्दूओं द्वारा, बहुत समय के साथ, यहाँ तक कि जब से भारत को माना जाता है, अन्य धर्मों जैसे इस्लाम, सिख, ईसाई आदि को धारण की हुयी व्यवस्था है।
जैसे कि पहले ही व्याख्या की जा चुकी है कि ये बहुत हद तक पश्चिम की जाति अवधारणा की तरह ही है, इसकी यूरोपीय द्वीप की वर्ग व्यवस्था के साथ भी तुलना की जा सकती है। वर्ग व्यवस्था भी भेदभाव की व्यवस्था की तरह ही है। वर्ग व्यवस्था भी बहुत से विभिन्न तथ्यों जैसे: धन, शक्ति, प्रतिष्ठा, जन्म वंशावली और व्यवसाय पर भी आधारित है। सामान्यतः, वर्ग विरासत नहीं है जबकि जाति है। लेकिन जाति व्यवस्था के समान ही, वर्ग व्यवस्था भी सामाजिक समूहों में समाज में उनके स्तर के आधार को लेकर विभिन्नताओं को लिये हुये है।
वर्ण व्यवस्था, वर्ग व्यवस्था का ही अनोखा रुप है जिसमें समाज का क्रम जन्म के आधार पर निर्धारित किया जाता है। इस प्रकार की व्यवस्था केवल भारतीय उपमहाद्वीपों मे ही अस्तित्व में है। वर्ग व्यवस्था की तरह, वर्ण व्यवस्था किसी एक व्यक्ति को एक जाति से दूसरी जाति में जाने की अनुमति नहीं देती। अलग जाति के लोगों के बीच एक दूसरे के साथ भोजन करने और शादी करने पर कड़ा प्रतिबंद्ध है। जाति व्यवस्था की एक प्रमुख विशेषता सजातियता है जैसे: अपनी जाति में ही शादी करना। ये बहुत सामान्य, दृढ़ और बहुत अच्छे से परिभाषित व्यवस्था है।
यही कारण है कि वर्ण या जाति बहुत करीबी वर्ग माने जाते हैं। ये संतुष्टि के लिये बहुत करीबी व्यवस्था है जिसमें लगभग सभी बच्चों का अन्त समाज के उसी वर्ग में होता जिससे उनके पिता संबंधित थे।
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ये बहुत शर्म की बात है कि, अब 21वीं शताब्दी में भी और इस आयु और समय में जबकि मानव समाज ने वैज्ञानिक तौर पर इतनी तरक्की की है कि लोग मंगल ग्रह पर भी जमीन खरीदने की योजना बना रहे हैं, भारतीय समाज तब भी जाति प्रथा जैसी प्राचीन व्यवस्था में विश्वास रखता है
जाति या वर्ण प्रथा पूरी तरह से भारतीय तथ्य है और विशेषरुप से प्रथा हिन्दूओं द्वारा, बहुत समय के साथ, यहाँ तक कि जब से भारत को माना जाता है, अन्य धर्मों जैसे इस्लाम, सिख, ईसाई आदि को धारण की हुयी व्यवस्था है।
जैसे कि पहले ही व्याख्या की जा चुकी है कि ये बहुत हद तक पश्चिम की जाति अवधारणा की तरह ही है, इसकी यूरोपीय द्वीप की वर्ग व्यवस्था के साथ भी तुलना की जा सकती है। वर्ग व्यवस्था भी भेदभाव की व्यवस्था की तरह ही है। वर्ग व्यवस्था भी बहुत से विभिन्न तथ्यों जैसे: धन, शक्ति, प्रतिष्ठा, जन्म वंशावली और व्यवसाय पर भी आधारित है। सामान्यतः, वर्ग विरासत नहीं है जबकि जाति है। लेकिन जाति व्यवस्था के समान ही, वर्ग व्यवस्था भी सामाजिक समूहों में समाज में उनके स्तर के आधार को लेकर विभिन्नताओं को लिये हुये है।
वर्ण व्यवस्था, वर्ग व्यवस्था का ही अनोखा रुप है जिसमें समाज का क्रम जन्म के आधार पर निर्धारित किया जाता है। इस प्रकार की व्यवस्था केवल भारतीय उपमहाद्वीपों मे ही अस्तित्व में है। वर्ग व्यवस्था की तरह, वर्ण व्यवस्था किसी एक व्यक्ति को एक जाति से दूसरी जाति में जाने की अनुमति नहीं देती। अलग जाति के लोगों के बीच एक दूसरे के साथ भोजन करने और शादी करने पर कड़ा प्रतिबंद्ध है। जाति व्यवस्था की एक प्रमुख विशेषता सजातियता है जैसे: अपनी जाति में ही शादी करना। ये बहुत सामान्य, दृढ़ और बहुत अच्छे से परिभाषित व्यवस्था है।
यही कारण है कि वर्ण या जाति बहुत करीबी वर्ग माने जाते हैं। ये संतुष्टि के लिये बहुत करीबी व्यवस्था है जिसमें लगभग सभी बच्चों का अन्त समाज के उसी वर्ग में होता जिससे उनके पिता संबंधित थे।
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