anuched on Pustak padne ki Aadat in Hindi
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ज्ञान की कोई सीमा नहीं है । अगर हम अधिक से अधिक ज्ञान अर्जित कर लेते हैं तो भी हम तृप्त नहीं हो सकते क्यों कि ज्ञान की कोई पराकाष्ठा नहीं है । अध्ययन से हमें अनुभव एवं सूचना के रूप में ज्ञान प्राप्त होता है । दुर्भाग्यवश हमारे यहां भारत में पढ़ने की आदत बहुत कम है ।
इसीलिये हमारी कुल प्रकाशित पुस्तकों में से सत्तर प्रतिशत पाठय-पुस्तकें हैं जबकि पश्चिमी देशों में यह प्रतिशत तीस से अधिक नहीं है । एक बार प्रसिद्ध भारतीय लेखक श्री मूल राज आन्नद से यह प्रश्न पूछा गया कि हमारे देश में लोगों में अध्ययन की आदत कम होने के क्या कारण हैं तो उनका जवाब था कि भारत में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ज्ञान का मौखिक सम्प्रेषण है ।
पाणिन्य शिक्षा का दावा है कि जिन्होंने लिखित पुस्तकों से पढ़ा वह ज्ञान के जिज्ञासुओं में सबसे निम्न स्तर पर थे । आज भी शिक्षण का औपाचारिक ढंग जिससे विद्यार्थियों के ज्ञान में वृद्धि हो वह ‘संकेत स्मृति’ पर आधारित है जिसमें व्याख्यान देना व पुर्नउत्पादन सम्मिलित है । इसमें विद्यार्थियों से ज्ञान की विस्तृत खोज करने की अपेक्षा नहीं की जाती ।
इससे विद्यार्थी सतही रूप से प्रभावित होता है इसतरह यह उनमें अन्तरिक रूप से ज्ञान की पिपासा जगाने में असमर्थ रहा है जो स्वाध्याय के लिये प्रेरित करती है । मुख्य रूप से अध्ययन की आदत तीन तत्वों पर निर्भर करती है शैक्षणिक, ग्रन्थ वैज्ञानिक एवं ग्रंथ सूची सम्बन्धी ।
प्रथम शिक्षण से संबन्धित होने के कारण महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है । किन्तु र्दुभाग्यवश शिक्षण व्यवसाय में छोटे उद्देश्यों की पूर्ति पर अधिक जोर देते हैं नाकि आधारभूत शिक्षा पर । परीक्षा की तैयारी के लिये विद्यार्थी उत्तम कोटि की पाठय पुस्तकों की अपेक्षा सस्ती एवं अधिक तनूकृत पुस्तकों से अध्ययन करते हैं ।
शिक्षण में विद्यार्थियों के आत्मसुधार एवं आत्मविकास पर बल देना चाहिये ताकि वह आने वाले जीवन के लिये तैयार हो सकें । आत्मसुधार के लिये पुस्तको से प्रेम एवं अध्ययन परम आवश्यक है । अध्ययन के लिये अच्छी पुस्तकों का चयन आवश्यक है । दुर्भाग्यवश बच्चों एवं व्यस्कों के लिये पुस्तकों का अभाव है ।
भाषा एक अन्य रुकावट है । हम अच्छे साहित्य से वंचित रह जाते हैं क्योंकि देश में अनुवाद की सुविधा बहुत कम उपलब्ध है । इसीलिये हमें यह पता नहीं चल पाता कि देश में विभिन्न भाषाओं में क्या लिखा जा रहा है । इसे ग्रन्थ विज्ञान कहते हैं । तृतीय तत्त्व ग्रन्थ संदर्भिका सम्बन्धित है ।
इसमें पुस्तकालय के महत्त्व पर बल दिया जाता है । यही संस्था उपरोक्त दोनों तत्त्वों में सामंजस्य स्थापित कर सकती है । पुस्तकालय ऐसे होने चाहिये जिनमें पुस्तकों का वृहद संग्रह हो । एवं पुस्तकें आसानी से उपलब्ध हों ।
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