History, asked by rahim49, 8 months ago

अपनेअ᭟ ययन कᳱ अविध के तहत ᮧारंिभक भारत के पुनᳶनमाᭅण के िलए सािहि᭜यक ᮲ोतᲂ और उनकᳱ

सीमाᲐ का िवश् लेषण करᱶ।​

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Answered by Anonymous
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औपनिवेशिक भारत, भारतीय उपमहाद्वीप का वह भूभाग है जिसपर यूरोपीय साम्राज्य था।

पुर्तगालियों के उपनिवेश

डच के उपनिवेश ( डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी देखें)

अंग्रेजों द्वारा उपनिवेशीकरण

(क) ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन (१८५७ तक)

(ख) प्रत्यक्ष ब्रिटिश राज

फ्रांसीसी उपनिवेश

डेनमार्क के उपनिवेश

भारत बहुत दिनों तक इंग्लैंड का उपनिवेश रहा है। सन 1600 ई में स्थापित यह कम्पनी मुगल शासन उत्तराधिकार बनी। प्रारंभ का उद्देश्य व्यापार करना तथा मुंबई कोलकाता और मद्रास के बंदरगाह से होकर शेष भारत में इसका संपर्क रहता था। धीरे-धीरे कंपनी की प्रादेशिक मौत की इच्छा प्रबल होती गई और और शीघ्र विवाह भारत में एक प्रमुख यूरोपीय शक्ति बन गई थी । सन 1773 से 1858 ई. तक का युग ऐसा रहा जिसे हम दोहरी सरकार का काल कहते हैं।कंपनी के साथ साथ ब्रिटिश संसद में भारतीय प्रशासनिक विषयों में अधिक रुचि लेने लगे। बंगाल में दीवानी अधिकार प्राप्त करने के समय से लेकर सन् 1857 ईसवीं तक कंपनी शासन ने अपने आप को एक ऐसी स्थिति में पाया, जिसे मुगलकालीन प्रशासन उसके अपने साम्राज्यवादी उद्देश्य के अनुरूप नहीं था और भारत जैसे देश में अंग्रेजी प्रशासन की विशेषताएं उत्पन्न करना एक कठिन कार्य था।सन् 1858 से 1947 तक क्राउन की सरकार ने संवैधानिक सीमा में रहते हुए संसदीय संस्थाओं को विकसित करने का अनेक प्रयत्न किया। जिसके फलस्वरूप भारतीय प्रशासन को भी राजनीतिक और आर्थिक सुधारों की दृष्टि से एक नया प्रयोग क्षेत्र माना जाने लगा। रेगुलेटिंग एक्ट से प्रारंभ होने वाले संवैधानिक विकास के चरण जिस महत्वपूर्ण बरसों से गुजरे हैं उसमें 1813, 1833, 1818, 1861, 1893, 1909, 1919 और 1935 महत्वपूर्ण हैं। सन् 1858 में क्राउन द्वारा सत्ता हस्तगत कर लिए जाने पर लंदन में गिरी सरकार की स्थापना हुई और महारानी विक्टोरिया ने उदारवादी घोषणा द्वारा अपनी भावी सुधारों की ओर संकेत किया। 1761 के अधिनियम ने भारत के प्रांतीय और कार्यकारिणी को संगठित बनाया तथा इसके द्वारा आधुनिक प्रांतीय विधान मंडलों की नीव पड़ी। 1858 से 1862 ईसवीं तक की उदारवादी मांगों के फलस्वरुप एक समिति व्यवस्था का जन्म हुआ जिसमें अप्रत्यक्ष चुनाव का वादा किया।

Answered by madhusri378
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प्राचीन इतिहास के स्रोतों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:

  1. साहित्यिक स्रोत
  2. पुरातत्व संसाधन
  • देश की धरती पर उपलब्ध सबसे प्राचीन साहित्य वेद है। वे संख्या में चार हैं, और उनका इतिहास कम से कम 1000 ईसा पूर्व का है। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद इनके नाम हैं। ऋग्वेद चारों पुराणों में सबसे महत्वपूर्ण और प्राचीन है।
  • पुराण पारंपरिक साहित्य का अगला सबसे महत्वपूर्ण स्रोत हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पहला पुराण ईसाई युग की पहली शताब्दी के प्रारंभ में अस्तित्व में आया था। श्री एन.एन. घोष का मानना ​​है कि संपूर्ण पुराणों को उनकी अंतिम स्वीकृति मिली।
  • हमारे सामने अगला महत्वपूर्ण साहित्य पाली और प्राकृत का है जो बौद्ध धर्म के अभिलेख हैं। अब तक 549 जातक एकत्र और प्रकाशित हैं और प्रत्येक जातक की जन्म कथाएँ हैं। प्रारंभिक बौद्ध भारत की राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक स्थितियों पर भी प्रकाश डाला गया है। महान 12 अंग, जैन धर्म के प्राचीन जैन विहित ग्रंथ के रूप में कहे जाते हैं, फिर से हमारी जानकारी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्रोत है। श्रीलंका में पाली भाषा में प्रकाशित ऐतिहासिक पुस्तकें उस देश के साथ हमारे संबंधों पर कुछ प्रकाश डालती हैं।
  • कालिदास के तीन महत्वपूर्ण नाटक हैं - मालविकाग्निमित्रम, विक्रमोर्वशियम और अभिज्ञान शकुंतलम। अभिज्ञान शकुंतलाम का पहले से ही 60 से अधिक यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद किया गया है, एक साहित्यिक कृति के माध्यम से लोगों के सामाजिक जीवन, समय की पोशाक और विभिन्न सामाजिक और विशेष रूप से पारिवारिक समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण को दर्शाया गया है।

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