अपनी पाठयपुरचक मे शामल किसी एक लेखक लेखक के जीना और उनकी विशेषताओं तथा उसले द्वारा रचित्र साहित्य पर विस्तार से एक परियोजना तयार करे सर्थ सिरिन लोग- मान
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कन्नड साहित्य का इतिहास लगभग डेढ़ हजार वर्ष पुराना है। कुछ साहित्यिक कृतियाँ जो ९वीं शताब्दी में रची गयीं थीं, अब भी सुरक्षित हैं।[6] कन्नड साहित्य को मुख्यतः तीन साहित्यिक कालों में बांटा जाता है- प्राचीन काल (450–1200 CE), मध्यकाल (1200–1700 CE) तथा आधुनिक काल (1700 से अब तक)।[7] कन्नड साहित्य की एक विशेष बात यह है कि इसमें जैन, वीरशैव और वैष्णव तीनों सम्रदायों ने साहित्य रचना की जिससे मध्यकाल में तीन स्पष्ट धाराएँ दिखतीं हैं।[8][9][10] यद्यपि १८वीं शताब्दी से पूर्व का अधिकांश साहित्य धार्मिक था, किन्तु कुछ असाम्प्रदायिक साहित्य भी रचा गया।[11][12]
काल विभाजन
कन्नड साहित्य के इतिहास पर जितने छोटे-बड़े ग्रंथ रचे गए हैं उनमें मुख्य निम्नलिखित हैं :
सन् 1875 में रे. एफ़. किट्टल द्वारा लिखी नागवर्मा के "छंदोंबुधि" नामक ग्रंथ की प्रस्तावना,
एपिग्राफ़िया कर्नाटिका में बी.एल. राइस का लेख,
आर. नरसिंहाचार का लिखा हुआ "कर्नाटक कविचरित" (तीन भागों में, 1907),
ई.पी.राइस की "ए हिस्ट्री ऑव केनरीस लिटरेचर" (अंग्रेजी में),
डॉ॰आर.एस.मुगलि का "कन्नड साहित्य चरित्रे" (1953)।
श्री.एम. मरियप्प भट्ट का "संक्षिप्त कन्नड साहित्य चरित्रे" (1901)।
इन इतिहासों में कन्नड साहित्य के इतिहास का कालविभाजन भिन्न-भिन्न आधारों पर किया गया है। किसी ने 12वीं शताब्दी के मध्यकाल तक जैन युग, 12वीं शताब्दी के मध्यभाग से 15वीं शती के मध्यभाग तक "वीरशैव युग", 15 वीं शताब्दी के मध्यभाग से 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक "ब्राह्मण युग" और उसके बाद के काल को आधुनिक युग माना है; और किसी विद्वान् के अनुसार आरंभकाल 10वीं शताब्दी तक, धर्म-प्राबल्य-काल, (10वी शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक जैन कवि, वीरशैव कवि, ब्राह्मण कवि) रगले, षटपदि एवं नवीनकल कहा है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अब तक लिखे गए कन्नड साहित्य के इतिहासों में डॉ॰ आर.एस। मुगलि का लिखा हुआ कन्नड साहित्य चरित्रे कई दृष्टियों से सर्वोत्तम है। अत: यह कह सकते है कि मुगलि का कालविभाजन सर्वाधिक मान्य है जो इस प्रकार है–
पंपपूर्व युग (सन् 950 तक),
पंप युग (सन् 950 से सन् 1150 तक),
बसवयुग (सन् 1150 से 1500 तक),
कुमारव्यास युग (सन् 1500 से 1900 तक) और
आधुनिक युग (सन् 1900 से)
प्रो॰ मुगलि ने प्रत्येक युग के सर्वाधिक प्रतिभासंपन्न कवि के नाम से उस युग का नामकरण करते हुए मोटे तौर पर सारे साहित्य को मार्ग युग, संक्रमण युग, देशी युग के रूप में विभाजित किया है।
पंपपूर्व युग
"कविराजमार्ग", कन्नड का प्रथम उपलब्ध ग्रंथ है। चंपू शैली में लिखा हुआ यह रीतिग्रंथ प्रधानतया दंडी के "काव्यादर्श" पर आधरित है। इसका रचनाकाल सन् 815-877 के बीच माना जाता है। इस बात में विद्वानों में मतभेद है कि इसके रचयिता मान्यखेट के राष्ट्रकूट चक्रवर्ती स्वयं नृपतुंग थे या उनका कोई दरबारी कवि। डॉ॰ मुगलि का यह मत है कि इसके लेखक नृपतुंग के दरबारी कवि श्रीविजय थे।
कविराजमार्ग का प्रतिपाद्य विषय अलंकार है। ग्रंथ तीन परिच्छेदों में विभाजित है। द्वितीय तथा तृतीय परिच्छेदों में क्रमश: शब्दालंकारों तथा अर्थालंकारों का निरूपण उदाहरण सहित किया गया है। प्रथम पच्छिेद में काव्य के दोषादोष (गुण, दोष) का विचार किया गया है। साथ ही ध्वनि, रस, भाव, दक्षिणी और उत्तरी काव्यपद्धतियाँ, काव्यप्रयोजन, साहित्यकार की साधना, साहित्यविमर्श के स्वरूप आदि का संक्षेप में परिचय दिया गया है। कन्नड भाषा, कन्नड साहित्य, कन्नड प्रदेश, कर्नाटक की जनता की संस्कृति आदि कई बातों की दृष्टि से कविराज मार्ग एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
इस काल का दूसरा ग्रंथ है "वड्डाराधने" जिसमें 19 जैन महापुरुषों की कहानियाँ गद्य में निरुपित हैं। इसके लेखक तथा रचनाकाल के संबंध में यही समझा जाता है कि शिवकोटयाचार्य नामक जैन कवि ने इसे सन् 900-1070 के बीच रचा था। यह प्राकृत के "भगवतीआराधना" नामक ग्रंथ के आधार पर रचा गया है और इसमें उत्तम काव्य के गुण मिलते हैं। इस ग्रंथ की सबसे बड़ी महत्ता यह है कि इसमें कन्नड के गद्य का सर्वप्रथम रूप प्राप्त होता है।
उपर्युक्त दो ग्रंथों के अतिरिक्त अब तक इस काल का अन्य कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं हुआ है।