असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते
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श्रीभगवान् बोले कि जैसे तू कहता है यह ठीक ऐसा ही है हे महाबाहो मन चञ्चल और कठिनतासे वशमें होनेवाला है इसमें ( कोई ) संदेह नहीं। किंतु अभ्याससे अर्थात् किसी चित्तभूमिमें एक समान वृत्तिकी बारंबार आवृत्ति करनेसे और दृष्ट तथा अदृष्ट प्रिय भोगोंमें बारंबार दोषदर्शनके अभ्यासद्वारा उत्पन्न हुए अनिच्छारूप वैराग्यसे चित्तके विक्षेपरूप प्रचार ( चञ्चलता ) को रोका जा सकता है। अर्थात् इस प्रकार उस मनका निग्रह निरोध किया जा सकता है।
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