History, asked by nathram1503, 9 months ago

audyogikaran kya hai​

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Answered by ardevlekar002
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औद्योगीकरण पर निबंध! Here is an essay on ‘Industrialization’ in Hindi language.

औद्योगाकरण अंग्रेजी शब्द ‘Industrialization’ का हिन्दी रूपान्तर है, जिसका अर्थ हे-अर्थव्यवस्था में सुधार हेतु उद्योगों की स्थापना एवं उनका विकास । औद्योगीकरण एक सामाजिक तथा आर्थिक प्रक्रिया है, जिसमें उद्योग-धन्धों की बहुलता होती है ।

औद्योगीकरण के कारण शहरीकरण को बढावा मिलता है एवं मानव समूह की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बदल जाती है । कह सकते है कि यह आधुनिकीकरण का एक अंग है । इसके कारण वस्तुओं के उत्पादन में तेजी से बुद्धि होती है, किन्तु इसके लिए अत्यधिक ऊर्जा की खपत करनी पड़ती है ।

औद्योगीकरण के लिए आधारभूत संरचनाओं अर्थात् सड़क, परिवहन, संचार व्यवस्था एवं ऊर्जा के बिकास की आवश्यकता पडती है इस तरह औद्योगीकरण अर्थव्यवस्था में सुधार भी लाता है । वास्तव में, औद्योगीकरण की शुरूआत अठारहवीं शताब्दी के मध्य में इग्लैण्ड में हुई थी ।

इसके बाद यूरोप के अन्य देश भी औद्योगीकरण की राह पर चल निकले एशिया में औद्योगीकरण की शुरूआत 19वीं सदी के उतरार्द्ध में हुई थी । इसके फलस्वरूप उद्योग-धन्धों, व्यापार आदि में आशातीत वृद्धि देखी गई ।

धीरे-धीरे सम्पूर्ण विश्व औद्योगीकरण पर बल देता नजर आया । इससे जहाँ आयात-निर्यात को बढ़ावा मिलता है, वहीं विदेशी निवेश में भी वृद्धि होती है । आयात-निर्यात को बढ़ावा मिलने एवं विदेशी निवेश में वृद्धि होने के कारण अत्यधिक संख्या में लोगों को रोजगार मिलता है, जिससे बेरोजगारी जैसी समस्याओं के समाधान में सहायता मिलती है ।

औद्योगीकरण विदेशी मुद्रा के अर्जन में भी सहायक होता है । औद्योगीकरण की प्रक्रिया में हर प्रकार की सुविधा एवं छूट के कारण वस्तुओं की निर्माण लागत को कम किया जाता है । इस तरह, आर्थिक प्रगति के दृष्टिकोण से भी औद्योगीकरण अत्यन्त लाभप्रद है ।

भारतीय औद्योगीकरण के बारे में अध्ययन बताते है कि इंग्लैण्ड की आरम्भिक समृद्धि में भारत का महत्वपूर्ण योगदान रहा है और यही आरम्भिक समृद्धि आगे चलकर भारत के औद्योगीकरण का आधार बनी । उल्लेखनीय है कि प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीय अर्थव्यवस्था पर यूरोपीय व्यापारियों की पकड़ ढीली थी ।

ब्रिटेन के युद्ध में उलझे होने, जहाजरानी की सुविधाओं की कमी तथा विरोधी देशों के साथ व्यापार बन्द हो जाने के कारण भुगतान सन्तुलन या आयात-निर्यात के व्यापार का सन्तुलन तथा उसके मूल आधार प्रभावित हुए ।

ब्रिटिश वस्तुओं के आयात में आई अस्थायी कमी ने देशी उद्योग को प्रेरित किया, जिसने भारतीय बाजार की जरूरतें पूरी करने के लिए कदम उठाए । इससे देशी उद्योग को अत्यधिक बल मिला । युद्ध की समाप्ति तक सूती कपडों का भारत में गिनतीबार आयात घटकर मामूली-सा रह गया । इसी बीच थलसेना तथा जलसेना की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इंजीनियरिंग से सम्बद्ध कम्पनियाँ उमर आई ।

लोहे और इस्पात, कागज तथा सीमेण्ट में भी भारत ने अपनी आवश्यकताओं की अधिक पूर्ति शुरू कर दी । यद्यपि भारतीय उद्योग एवं पूँजी पर ब्रिटिस नियंत्रण में कोई महत्वपूर्ण कमी नहीं आई थी, पर दो विश्वयुद्धों के बीच के काल में भारतीयों ने उद्योगों के कामकाज में अधिक भूमिका निभानी शुरू कर दी ।

इस दिशा में सबसे उल्लेखनीय प्रगति वर्ष 1924 में टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी द्वारा की गई, जब टाटा के जल-विद्युत परियोजनाएं चालू हुईं । अनेक भारतीयों ने जूट और सीमेण्ट के उद्योगों में कदम रखा । चीनी तथा कागज उद्योग में भी अनेक भारतीय कंपनियाँ उभरी ।

यद्यपि ब्रिटिश फर्म आगे रहीं, किन्तु विदेशी आयात में कमी होने से मुख्यतः घरेलू बाजार की आवश्यकताएँ पूरी करने बाले भारतीय उद्योगपतियों के दायरे में भी विस्तार हुआ । इस समय जो महत्वपूर्ण उद्योगपति उभरे, उनके नाम थे-बिडला बन्धु, करमचन्द थापर, डालमिया जैन तथा टाटा । इनके अतिरिक्त कुछ अन्य उद्योगपति भी थे, जो मुख्यतः पारसी थे ।

इनमें से बहुतेरे विगत अतीत में जहाजरानी, व्यापार तथा बैंकिंग गतिविधियों के पारम्परिक माध्यमों से सम्पत्ति इकट्ठा कर रहे थे । इनमें से अधिकांश ने ये पारम्परिक धन्धे जारी रखे तथा साथ ही नए उद्योगों में भी पूँजी लगाई, जो अक्सर ही ब्रिटिश पूंजी के सहयोग में होती थी । अब यह सवाल उठा कि इन उद्योगों के प्रति सरकारी नीति क्या हो ? नए उद्योगों को इसी मुद्दे पर समस्याओं का सामना करना पडा, क्योंकि विदेशी पूंजी युद्ध के कारण आई तेजी का फायदा उठाना चाह रही थी ।

भारत में पूंजी लगाने की ‘होड़’ लगी हुई थी और इस बढी हुई प्रतियोगिता, विशेषकर विदेशी पूंजी से प्रतियोगिता के सामने अनेक नए भारतीय स्वामित्व बाले उद्योग चरमरा गए । इन उद्योगों ने राज्य द्वारा संरक्षण दिए जाने की माँग उठाई ।

इस बात का महत्व इसलिए और भी था, क्योंकि यह माँग ऐसे समय उठाई गई, जब साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन का ज्वर तेजी से बढ रहा था । 1920 तथा 1930 के दशकों में संगठित राजनीतिक प्रतिरोध की शुरूआत हुई, जिसमें विभिन्न मोर्चों पर होने वाले आन्दोलन भी शामिल थे । साम्राज्यवादी सरकार पर इस बात के लिए दबाव डाला गया कि वह भारत के आर्थिक विकास के हित में कदम उठाए ।

भारतीय व्यापारियों तथा उद्योगपतियों ने सरकारी नीति में परिवर्तन तथा संरक्षण दिए जाने की माँग की, जिसे कांग्रेस के नेताओं का समर्थन प्राप्त हुआ । वर्ष 1923 में विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित करके सरकार से माँग की कि भारतीय उद्योगों को संरक्षण देने के लिए नीति बनाई जाए ।

Answered by debojitsahu999
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Answer:

औद्योगीकरण बंजर भूमि को बड़े-बड़े उद्योगों में परिवर्तित करने की प्रक्रिया है।

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