अवधपुरी मे राम
यह कथा आपथ को है। और भल पुरानी और न्यायधिस शासक थे। ५५४१ का
है। अवश्य से सरयू नदी के किनारे एक
सुपर नगर था। अयोध्या सही अर्थों के अधिकारी। रक्त को गति पारित
का प्रभाव हर जगह दिखाई देता था।
इमारत आलीशान थी। आम लोगों के
पर भयो सड़के चौही थी। सुर में भी। लोगों के मन में भी।
बाग-जगीचे पानी से लबालब भरे सरोवर।
खेतों में लहरातो हरियाली हवा में हिलती चीज की कमी नहीं थी। राज मुख था।
फसले सरको लहरों के साथ खेलती
कमी होने का प्रश्नही नहीं था। लेकिन
थी। अयोध्या हर तरह से संपन्न नगरी
उन्हें एक दु:ख था। छोटा सा दुखा मान के
भो। सपन्नता कोने अतरे तक बिखरी
एक कोने में छिपा हुआ। वह कहकर
हुई। सभी सुखो। सब समुद्धा दुःख और
उभर आता था। उन्हें सालता रहता था।
-विपन्नता को अयोध्या का पता नहीं मालूम
उनके कोई संतान नहीं थी। आयु लगातार
था। या उन्हें नगर की सीमा में प्रवेश को बढ़ती जा रही थी। उनकी तीन रानियाँ थीं
अनुमति नहीं थी। पूरा नगर विलक्षण था। कौशल्या. सुमित्रा और कैकेयी। रानियों के
मन में भी बस यही एक दु:ख था। संतान
उसे ऐसा होना ही था। वह कोसल
ही था। वह कोसल की कमी। जीवन सूना सूना लगता था।
राज्य की राजधानी था। राजा दशरथ वहीं राजा दशरथ से रानियों की बातचीत प्राय:
रहते थे। उनके राज में दुःख का भला इसी विषय पर आकर रुक जाती थी। राजा
क्या काम? राजा दशरथ कुशल योद्धा दशरथ की चिंता बढ़ती जा रही थी।
अद्भुत और मनोरमा
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