बंगाल शैली और समकालीन भारतीय कला के पांच प्रसिद्ध चित्रकारों के शिक्षकों के नाम बताओ
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बंगाल में साहित्य, कला और संगीत की त्रिवेणी बहती है। यहाँ जनसामान्य में साहित्य, कला, नाटक और संगीत के प्रति जैसा अनुराग है वह भारत के अन्य प्रान्तों में दुर्लभ है। हो सकता है कि अन्य किसी प्रांत में बंगाल से श्रेष्ठ कलाकार, संगीतकार, साहित्यकार एवं नाट्यकर्मी हों परन्तु बंगाल के आम लोगों में कला संस्कृति के प्रति जैसा लगाव है वह अन्यत्र नहीं है, यही इसॆ अन्य प्रांतों से विशिष्ट बनाता है और इसी कारण से कोलकाता को देश की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान आधुनिक शिक्षा के प्रचार प्रसार को इसका श्रेय जाता है। 1911 तक कोलकाता देश की राजधानी थी। राजाराम मोहन राय जैसे समाजसुधारकों के कारण बंगाल में सामाजिक रूढ़ियाँ कमज़ोर हुईं जिसके कारण बंगाल में राष्ट्रवादी आन्दोलन की राजनीतिक चेतना विकसित हुई। रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे सांस्कृतिक पुरुषों के प्रयास से जन सामान्य में साहित्य और संस्कृति के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। कला संस्कृति से जुड़ना सुसंस्कृत होने की शर्त बनी।
20 वीं सदी की शुरुआत में बंगाल में नवजागरण और जातीय चेतना के उन्मेष के कारण कला में भी भारतीयता की तलाश शुरू हुई। इसके पूर्व केरल में राजा रवि वर्मा (1848 - 1906) यूरोपियन कला के सम्मिश्रण से, कला के क्षेत्र में नवजागरण का सूत्रपात्र कर चुके थे। वे ब्रिटिश शासन काल में यूरोपियन कलाकारों की शैली में, भारतीय जनमानस में गहरे पैठे देवी देवताओं और पौराणिक आख्यानों पर आधारितचित्र बनाकर अकेले ही उन यूरोपीय कलाकारों के सामने चुनौती पेश कर रहे थे। राजा रवि वर्मा के चित्र तत्कालीन राजा महाराजा के महलों से लेकर जन साधारण के घरों में कैलेंडर के रुप में मौजूद और काफी लोकप्रिय था। आज हिन्दुस्तान में जन मानस में देवी देवताओं की जो छवि निर्मित है, वह राजा रवि वर्मा की ही देन है।
अवनीन्द्रनाथ टैगोर (1871-1951) यूरोपीय शैली के बरक्स जिस भारतीय शैली की तलाश कर रहे थे, उसका एक रास्ता यह था कि वे राजा रवि वर्मा की शैली को ही आगे बढ़ाते जैसा कि हेमेन मजुमदार(1894-1906) ने किया परन्तु तब कला में जिस भारतीयता की तलाश की जा रही थी वह अधूरी रह जाती। उस समय राजा रवि वर्मा की आलोचना इसलिए भी की जाती थी कि उनके चित्रित विषय भले ही भारतीय रहे हो परन्तु शैली यूरोपीय थी। अवनीन्द्रनाथ टैगर ने राज रवि वर्मा की शैली को आगे बढ़ाने के बजाय परंपरागत भारतीय कला के राजपूत शैली और मुग़ल शैली से आधार तत्व लेकर जापानी’ वाश’ टेक्नीक के सम्मिश्रण से एक नयी शैली का सूत्रपात किया जो कालांतर में ‘बंगाल- स्कूल’ के नाम से विख्यात हुई और आधुनिक भारतीय कला की आधार भूमि साबित हुई।
अवनीन्द्र टैगोर का जन्म कोलकाता के जोड़ासांको में टैगोर परिवार में हुआ था । रवीन्द्रनाथ टैगोर उनके चाचा थे । अवनीन्द्रनाथ की प्रारम्भिक कला शिक्षा यूरोपीय कलाकार गिलहार्डी के सानिध्य में हुआ था । बाद में अवनीन्द्रनाथ टैगोर को लगने लगा कि यूरोपीय कला शिक्षकों से उन्होंने जो सीखा है, उसमें भारतीयता लेशमात्र भी नहीं है। फिर वे हैवल और रवीन्द्रनाथ द्वारा प्रेरित करने पर परंपरागत भारतीय कला राजपूत और मुगल शैली की ओर मुखातिब हुए । जब वे परंपरागत भारतीय चित्रकला के साथ टेक्नीक व शैली के स्तर पर प्रयोग कर रहे थे तभी जापानी कलाकारों के संपर्क में आये । इस संपर्क से ‘वाश’ टेक्नीक का जन्म हुआ जो भारतीय और जापानी शैली वैशिष्ट्य के संयोग का प्रतिफलन था । इसी वाश टेक्नीक में भारतीय विषयों पर अवनीन्द्रनाथ ने चित्र बनाए। रवीन्द्रनाथ टैगोर अवनीन्द्रनाथ के बारे में कहते थे कि उसने देश को आत्महनन की त्राश से बचा लिया।
19 वीं सदी के अंतिम दशक में कोलकाता के गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट एवं क्राफ्ट में ई.वी. हैवल प्रिंसिपल बनकर आये । हैवल गुप्तकालीन कला, अंजता-एलोरा के अपूर्व कला वैभव तथा मुगल व राजपूत कला की खूबियों से परिचित थे । वे मानते पंरपरा जीवंत और मौलिक है जो यूरोप की आधुनिक अकादमियों और कला संस्थानों के संचित ज्ञान की अपेक्षा अधिक संपन्न और शक्तिशाली है । हैवल पहले विदेशी थे जिन्होंने सही परिप्रेक्ष्य में भारतीय कला का मूल्यांकन किया था। उनके विचार भारत की कला और भारत के इतिहास दोनों के संबंध में सुलझे हुए थे।‘ इंडियन पेंटिंग स्कल्पचर’ तथा कई अन्य किताबों के माध्यम से उन्होंने पश्चिम को भारतीय कला के वास्तविक रूप से अवगत कराया और भारतीय कला के बारे में बनी पूर्व अवधारणाओं को बदल दिया।उन्होंने विदेशी संस्कारों से ग्रसित और हीन भावनाओं से पीड़ित भारतीय मानस को एक नई कला चेतना दी।गवर्नमेंट आर्ट स्कूल के प्रिंसिपल बनते ही हैवल ने पाश्चात्य कला की नकलें जिनसे छात्र चित्र बनाना सीखते थे,उठाकर फेकवा दी थीं और उनके स्थान पर राजस्थानी और मुगल कला के उत्कृष्ट नमूने रखवा दिए। गुप्त काल की प्रतिमाओं का हैवल मुक्तकंठ से प्रशंसा करते थे।वे गुप्त काल को भारतीय कला का स्वर्ण-काल मानते थे।हैवल का मत था कि भारत की चित्रकला और मूर्तिकला मात्र प्रतिरूप नहीं है,वह व्यक्ति विशेष के दैहिक रूप