बूघापा एक अभिशाप.......
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आजकल सीनियर सिटिजंस को मुख्यत: 3 तरह की समस्याएं झेलनी पड़ रही हैं। एक कोशिश बुढ़ापे को करीब से जानने की बुढ़ापे का एक सच यह है कि उस व्यक्ति ने जो सीखा हुआ है उसे वह भूल नहीं सकता और नई चीजें वह सीख नहीं सकता। यानी उसे पिछले सीखे हुए से ही काम चलाना पड़ता है। सीनियर सिटिजंस की मौजूदा हालत के लिए अगर कोई एक बात जिम्मेदार है, तो वह है इस देश का इतिहास। हमारे देश का जन्म ही कुछ इस तरह हुआ कि इसकी कई समस्याओं का कोई समाधान नहीं दिखता। यहां कभी मनुष्य के जीवन को महत्व नहीं दिया गया। अमेरिका और यूरोप में यही फर्क दिखा कि वहां हर व्यक्ति के जीवन की कद्र है। कद्र है इसलिए सबकुछ उसकी सुविधा के लिए बनाया गया है। वहां पैरंट्स जल्दी ही बच्चों से अलग स्वतंत्र जीवन गुजारते हैं। यहां हम लोग सीनियर सिटिजंस की पूजा करते हैं और हमेशा उन्हें अपने साथ रखते हैं, यह हमारे समाज का सकारात्मक पहलू है। वे चाहें ग्रामीण इलाकों में रहते हों या शहरी इलाकों में, सीनियर सिटिजंस के लिए सबसे बड़ी परेशानी स्वास्थ्य समस्याएं हैं। इस मुल्क में सीनियर सिटिजंस के लिए हेल्थ केयर नाम की कोई चीज ही नहीं है। बच्चों के खुद से दूर रहने को मैं कोई समस्या नहीं मानता। यह तो आज के आधुनिक समय की जरूरत बन गई है, हमें उसके हिसाब से ढलना होगा। बच्चों का विदेश जाना भी समस्या नहीं है, बशर्ते कि वे वहीं शादी करके सेटल न हो जाएं। मैं मानता हूं कि नई पीढ़ी का जीवन बहुत फास्ट हो गया है, लेकिन बावजूद इसके वे अपने पसंदीदा काम के लिए टाइम तो निकाल ही लेते हैं। इसलिए यह कहना गलत है कि वे समय की कमी के कारण सीनियर सिटिजंस की देखभाल नहीं कर पाते। दरअसल नई पीढ़ी आत्मग्रस्त होती जा रही है। बसों में वे सीनियर सिटिजंस को जगह नहीं देते। बुजुर्ग अकेलापन झेल रहे हैं क्योंकि युवा पीढ़ी उन्हें लेकर बहुत उदासीन हो रही है , मगर हमें भी अब इन्हीं सबके बीच जीने की आदत पड़ गई है। सीनियर सिटिजंस की तकलीफ की एक बड़ी वजह युवाओं का उनके प्रति कठोर बर्ताव है। लाइफ बहुत ज्यादा फास्ट हो गई है। इतनी फास्ट की सीनियर सिटिजंस के लिए उसके साथ चलना असंभव हो गया है। एक दूसरी परेशानी यह है कि युवा पीढ़ी सीनियर सिटिजंस की कुछ भी सुनने को तैयार नहीं- घर में भी और बाहर भी। दादा-दादियों को भी वे नहीं पूछते, उनकी देखभाल करना तो बहुत दूर की बात है। जिंदगी की ढलती साँझ में थकती काया और कम होती क्षमताओं के बीच हमारी बुजुर्ग पीढ़ी का सबसे बड़ा रोग असुरक्षा के अलावा अकेलेपन की भावना है। बुजुर्ग लोगों को ओल्ड एज होम में भेज देने से उनकी परिचर्या तो हो जाती है, लेकिन भावनात्मक रूप से बुजुर्ग लोगों को वह खुशी और संतोष नहीं मिल पाता, जो उन्हें अपने परिजनों के बीच में रहकर मिलता है। शहरी जीवन की आपाधापी तथा परिवारों के घटते आकार एवं बिखराव ने समाज में बुजुर्ग पीढ़ियों के लिए तमाम समस्याओं को बढ़ा दिया है। कुछ परिवारों में इन्हें बोझ के रूप में लिया जाता है। वृद्धावस्था में शरीर थकने के कारण हृदय संबंधी रोग, रक्तचाप, मधुमेह, जोड़ों के दर्द जैसी आम समस्याएँ तो होती हैं, लेकिन इससे बड़ी समस्या होती है भावनात्मक असुरक्षा की। भावनात्मक असुरक्षा के कारण ही उनमें तनाव, चिड़चिड़ाहट, उदासी, बेचैनी जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। मानवीय संबंध परस्पर प्रेम और विश्वास पर आधारित होते हैं। जिंदगी की अंतिम दहलीज पर खड़ा व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों को अगली पीढ़ी के साथ बाँटना चाहता है, लेकिन उसकी दिक्कत यह होती है कि युवा पीढ़ी के पास उसकी बात सुनने के लिए पर्याप्त समय ही नहीं होता। मध्यम वर्ग में ज्यादातर बुजुर्गों की समस्या की शुरुआत यहीं से होती है। ध्यान जीवन का आधार है। परमात्मा ने मानव को ध्यान की संपदा देकर भेजा है, जिसे वह फलित करके अपने जीवन को महाजीवन में बदल आत्मनिर्भर हो सकता है। आत्मनिर्भरता धन से नहीं होती। जो खुद अपनी आत्मा पर निर्भर हो, वही आत्मनिर्भरता है। ऊर्जा व शक्ति का स्त्रोत भीतर है, लेकिन उसे बाहर खोजा जा रहा है। अंतस ध्यान में उतर कर ही ऊर्जा स्त्रोत प्रकट किया जा सकता है। किसी मनुष्य से आशा नहीं रखनी चाहिए और परमात्मा से आशा नहीं छोड़नी चाहिए। बुजुर्ग की हालत का रोना हर जगह है, मै तो मानता हूँ की यदि जवानी में आपने अपने बच्चों से ठीक से बर्ताब किया होता तो ये दिन देखने नहीं पड़ते, अपने औलाद को आपने धिक्कारा ,भला बुरा कहा,बहुओं को बेटी बराबर नहीं समझा तो दोष किसका है , हमेसा बहुओं को ताने देना ,मायके से कुछ लाने को कहना और उसकी आलोचना दुसरो से करना क्या गवारा नहीं लगता पूजा करते , जीवन बीता ! अब मुझको आराम चाहिए! कौन यहाँ आकर के, समझे मुझको भी, आराम चाहिए! कुछ दिल वाले दिलदार मिले कुछ मस्ती वाले यार मिले कुछ बिना कहे आते जाते घर बार