बिरह भुवंगम तन बसै मंत्र न लागै कोय'। इस पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए। *
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इस पंक्ति का भाव है कि विरह (जुदाई, पृथकता, अलगाव) एक सर्प के समान है, जो शरीर में बसता है और शरीर का क्षय करता है। इस विरह रूपी सर्प पर किसी भी मंत्र का प्रभाव नहीं पड़ता है, क्योंकि यह विरह ईश्वर को न पाने के कारण सताता है। जब अपने प्रिय ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है, तो वह विरह रूपी सर्प शांत हो जाता है, समाप्त हो जाता है अर्थात् ईश्वर की प्राप्ति ही इसका स्थायी समाधान ह
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