ब्रह्मचर्य पर निबंध। Brahmacharya par Nibandh
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ब्रह्मचर्य स्वस्थ जीवन की आधारशिला है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है,संयम, नियम एवं सदाचारपूर्वक शान्त-वदि से वीर्य को धारण करना और उसकी रक्षा करना। इसकी पूर्ण रक्षा और परिपक्वता के लिये ही ब्रह्मचर्याश्रम बनाया गया था। ऋषियों ने मानव-जीवन को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन चार आश्रमों में विभाजित किया था। इन चारों आश्रमों में ब्रह्मचर्य आश्रम का स्थान प्रथम है, क्योंकि आगे के तीनों आश्रम इसी की पुष्टता और परिपक्वता पर आधारित हैं। जिस व्यक्ति की 25 वर्ष तक की अवस्था पूर्ण संयम और सदाचारपूर्वक व्यतीत होती है और वह अपने वीर्य की पूर्ण रूप से रक्षा करता है, उसका भावी जीवन अत्यन्त सुखपूर्वक व्यतीत होता है, वह जीवन भर शक्तिशाली और प्रतापी बना रहता है। बीमारी, उदासी, अधीरता, हीनता आदि दोष कभी उसके पास नहीं आते, वह बुद्धिमान और बलवान होता है। जिस प्रकार एक भवन की दृढ़ता, मजबूती, परिपक्वता, चिरस्थायित्व उसकी नींव पर आधारित होती है, यदि नींव कमजोर है या खोखली है, तो उस पर बनाया हुआ मकान शीघ्र ही पृथ्वी पर गिर पड़ेगा, उसमें आँधी और तूफान के थपेड़ों को सहन करने की शक्ति कहाँ? उसी प्रकार जीवन रूपी भवन की आधारशिला अर्थात् नींव ब्रह्मचर्य है। वैसे ब्रह्मचर्य केवल ब्रह्मचर्याश्रम के लिये ही हो, ऐसी बात नहीं है। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना सभी आश्रमवासियों के लिये आवश्यक होता है।
ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने से मनुष्य को अनन्त लाभ हैं । ब्रह्मचर्य के अभाव में तो जीवन ही नहीं रह जाता, वह केवल एक खोखला अस्थि-पंजर मात्र होता है। ब्रह्मचर्य पालन से सदैव मानसिक उल्लास बना रहता है। वह प्रत्येक कार्य बड़े उत्साह और चाव से करता है। असफलता में भी उसके मुख की मुस्कराहट बनी रहता है, विपत्तियों में भी कभी अधीर नहीं होता, जीवन के प्रत्येक संघर्ष के लिये वह तत्पर रहता है। निराशा के क्षणों में भी उसे आशा की किरण दिखाई पड़ती है। मानसिक उल्लास के अभाव में जीवन-मृत्यु में बदल जाता है, जिसमें उल्लास नहीं वह संसार का कोई भी काम नहीं कर सकता। मनुष्य का मानसिक उल्लास मनुष्य की मनस्थिति पर आधारित रहता है। जो लोग दुराचारी हैं, वह जीवनभर दुखी, उदास, चिड़चिड़े, रुग्ण और पराश्रित बने रहते हैं। वे किसी काम में अगुआ नहीं बन सकते। उनमें न शारीरिक शक्ति होती है, न मानसिक स्थिरता, फिर उल्लास कहाँ से आये।
ब्रह्मचारी की बुद्धि सदैव तीव्र होती है। वह कठिन-से-कठिन समस्या का तुरन्त समाधान कर लेता है। उसमें आत्मनिर्णय की क्षमता होती है। उसे अपने पर विश्वास होता है, वह दूसरों का मुँह नहीं ताकता। अपनी बुद्धि के बल पर वह नये-नये आविष्कार करता है। अपनी बुद्धि के सहारे से वह कंटकाकीर्ण मार्गों को भी सरल बना देता है। जो विद्यार्थी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं, वे कक्षा में सदैव प्रथम आते हैं, सरस्वती उनसे स्नेह करती है। उन्हें भिन्न-भिन्न प्रकार के पारितोषिक प्राप्त होते हैं, छात्रवृत्तियाँ मिलती हैं, और सदैव श्रेष्ठ छात्रों में उनकी गणना होती है। उनका मुखमण्डल सदैव सूर्य की भाँति चमकता रहता है। एक बार बताई हुई बात उनकी तुरन्त समझ में आ जाती है, जबकि दूसरे विद्यार्थी चार-चार बार बताने पर भी नहीं समझ पाते। पढ़ने के साथ-साथ वह खेलने में भी अग्रणी होता है। इसके विपरीत जो प्रारम्भ से ही कुसंगति में फंस जाते हैं, वे पढ़ने-लिखने में कभी आगे नहीं आ पाते। उनका मुख पीला पड़ा रहता है, आँखें गड़े में धंसी रहती हैं, अध्यापक के पढ़ाने के समय वे कक्षा में सोया करते हैं, आगे की पंक्ति में बैठने से उन्हें भय लगता है, वे सदैव पीछे बैठते हैं, वे हमेशा बीमार और अस्वस्थ बने रहते हैं, पढ़ने-लिखने. खेलने-कूदने, किसी काम में भी उनका मन नहीं लगता।
ब्रह्मचर्य का पालन करने से शरीर पुष्ट होता है। स्वास्थ्य मानव-जीवन की सफलता की कुंजी है। स्वस्थ मनुष्य के लिए संसार में कोई भी वस्तु असम्भव नहीं होती। शरीर का पुष्ट होना जीवन का सबसे बड़ा सुख है। जहाँ जीवन के छः मुख्य सुख गिनाये गये हैं, वहीं स्वास्थ्य का स्थान प्रथम है-
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ब्रह्मचर्य स्वस्थ जीवन की आधारशिला है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है,संयम, नियम एवं सदाचारपूर्वक शान्त-वदि से वीर्य को धारण करना और उसकी रक्षा करना। इसकी पूर्ण रक्षा और परिपक्वता के लिये ही ब्रह्मचर्याश्रम बनाया गया था। ऋषियों ने मानव-जीवन को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन चार आश्रमों में विभाजित किया था। इन चारों आश्रमों में ब्रह्मचर्य आश्रम का स्थान प्रथम है, क्योंकि आगे के तीनों आश्रम इसी की पुष्टता और परिपक्वता पर आधारित हैं। जिस व्यक्ति की 25 वर्ष तक की अवस्था पूर्ण संयम और सदाचारपूर्वक व्यतीत होती है और वह अपने वीर्य की पूर्ण रूप से रक्षा करता है, उसका भावी जीवन अत्यन्त सुखपूर्वक व्यतीत होता है, वह जीवन भर शक्तिशाली और प्रतापी बना रहता है। बीमारी, उदासी, अधीरता, हीनता आदि दोष कभी उसके पास नहीं आते, वह बुद्धिमान और बलवान होता है। जिस प्रकार एक भवन की दृढ़ता, मजबूती, परिपक्वता, चिरस्थायित्व उसकी नींव पर आधारित होती है, यदि नींव कमजोर है या खोखली है, तो उस पर बनाया हुआ मकान शीघ्र ही पृथ्वी पर गिर पड़ेगा, उसमें आँधी और तूफान के थपेड़ों को सहन करने की शक्ति कहाँ? उसी प्रकार जीवन रूपी भवन की आधारशिला अर्थात् नींव ब्रह्मचर्य है। वैसे ब्रह्मचर्य केवल ब्रह्मचर्याश्रम के लिये ही हो, ऐसी बात नहीं है। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना सभी आश्रमवासियों के लिये आवश्यक होता है।