बिस्मिल्ला खाँ को काशी में कौन सी कमियाँ खलती थीं ?
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बनारस के साथ खान साहब का लगाव इतना गहरा था कि वे बनारस में कम बल्कि बनारस उनकी रूह में ज्यादा रहता था. वे कहा करते थे, ‘पूरी दुनिया में चाहे जहां चले जाएं हमें सिर्फ हिंदुस्तान दिखाई देता है और हिंदुस्तान के चाहे जिस शहर में हों, हमें सिर्फ बनारस दिखाई देता है.’ खान साहब मानते थे कि यह बनारस का ही कमाल था जिसने उनकी शहनाई के सुरों में रूमानियत भरी थी. इस बात का जिक्र उन पर लिखी किताब ‘सुर की बारादरी’ में यतीन्द्र मिश्र ने भी किया है. बकौल मिश्र, खान साहब कहा करते थे, ‘हमने कुछ पैदा नहीं किया है. जो हो गया, उसका करम है. हां अपनी शहनाई में जो लेकर हम चले हैं वह बनारस का अंग है. जल्दबाजी नहीं करते बनारस वाले, बड़े इत्मीनान से बोल लेकर चलते हैं. जिंदगी भर मंगलागौरी और पक्का महल में रियाज़ करते जवान हुए हैं तो कहीं ना कहीं बनारस का रस तो टपकेगा हमारी शहनाई में.’
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मां गंगा की आरती और अजानों की साथ गूंजती आवाजें, पानी पर सूरज की लालिमा का बनता सुर्ख़ अक्स और फिज़ा में बसी दीपकों में जलते घी की भीनी सी गंध. परंपराओं से भी पुराने बनारस की भोर न जाने कब से हर रोज किसी उत्सव की तरह आती रही है. इसने गा़लिब ही नहीं न जाने कितने ही दिलों को अपने मोहपाश में कैद किया चाहे वे भक्त शिरोमणि तुलसीदास हों या फिर ईरान के मशहूर शायर शेख अली हाजी. ये सभी इस सुबह पर अपना सब कुछ हार गए थे.