bachpan ki shararat ka paragraph
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रविवार की सुहानी ठंडी सुबह में बच्चों को शरारतें करते और खेलते देख कर आज बचपन की यादें यूँ सामने आ गईं कि जैसे गुल्लक में से खज़ाना निकल आया हो.कितने सुहाने दिन थे बचपन में तो न कोई चिंता होती थी सारा संसार ही सुन्दर दिखता था ,अब बड़े होकर सब चीज़ों और लोगों में कमियां ही दिखती हैं .जो चीज़ चाहिए होती बस एक बार बोलो मिल जाती थी और सच में तब जरूरतें भी इतनी कहाँ होती थीं बस अच्छा खाने को मिले ,दोस्तों के साथ शरारतें और मज़े करने को मिले इतना ही तो चाहिए होता था. जब भी रो दो कोई न कोई जरूर पुचकार कर चुप करा देता था.
थोड़े बड़े होने पर जब स्कूल जाना पड़ा तो कुछ समय तक तो सजा जैसा ही लगता रहा स्कूल जाना कि सवेरे जल्दी उठो ,यूनिफार्म पहनो, स्कूल में पढाई करो (हालाँकि आजकल के बच्चों जितना संघर्ष पढाई के मामले में हम लोगों ने नहीं किया, इन बेचारे बच्चों को तो पढाई और एग्जाम से फुर्सत ही नहीं मिलती ), ओफ्फो सवेरे उठने में तो हालत ख़राब हो जाती थीं पर स्कूल तो जाना ही पड़ता था नहीं तो मम्मी अच्छे से खबर लेती थीं (अब जब मैं भी माँ हूँ तो समझ आया कि उन्हें उनका me time भी तो तभी मिलता होगा जब हम स्कूल जाते होंगे ).
शुरुआत में स्कूल नहीं अच्छा लगा पर बाद में ढेर सारे दोस्त बने और स्कूल जाना भी अच्छा लगने लग गया .छोटी-छोटी शरारतें जैसे किसी टीचर का मज़ाक बनाना और उनके पीरियड में हंसी रोके रखना या फिर धीर-धीरे खी-खी करके देर तक हँसते रहना. एक-दुसरे का टिफ़िन बिना-पूछे खा लेना और मेरा टिफ़िन कोई बिना पूछे खाये तो जमकर लड़ लेना.
घर पर भाई-बहनों के साथ लड़ना कभी वजह तो कभी बिना वजह और फिर मम्मी का डांटकर कहना कि हर समय लड़ते रहते हो बड़े होकर मिलने को भी तरसोगे,आज सच हो गया है .नानाजी -अम्मा(नानी) के घर गर्मी कि छुट्टियों में जाना और पेड़ों से आम -अमरुद खुद तोड़कर खाना हमारे लिए एडवेंचर स्पोर्ट्स से कम थोड़े ही था. अम्मा के हाथों के अचार और बड़ियाँ भी बहुत याद आती हैं.
थोड़े और बड़े होने पर दोस्ती और शरारतें दोनों ही बढ़े, चाट हो या पानी के बताशे दोस्तों के साथ खाने में बड़ा मज़ा आता था .कभी स्कूल के ग्राउंड में खेल कर धूल-धूसरित होना भी आनंद देता था और यूनिफार्म गन्दी होने पर मम्मी की फटकार उससे भी ज्यादा मज़ा देती थीं. इमली,कैथा और चूरन खाने का मज़ा शायद आजकल के बच्चे नहीं जान पाएंगे पर सच में क्या दिन थे बचपन के. साइंस के हमारे टीचर राणा सर को राणा टिगरीना बुलाना(पर ये सिर्फ नाम का मज़ाक था सर का नहीं), इंक पेन से सहेलियों के कपड़ों पर स्याही छिड़क देना तो बस बानगी भर हैं.
जब भी यादों के पन्ने खोलती हूँ तो यही शरारतें और भोले बचपन की यादें लिखी दिखाई पड़ती हैं . और हाँ जब अपनी एक सहेली को साबुन का छोटा सा टुकड़ा टॉफ़ी के बीच छुपकर खिला दिया था तब पहले तो वो खा गई बाद में खूब लड़ी कि हमको साबुन खिला दिया तुमने ,जाओ अब तुमसे बात नहीं करेंगे ,मम्मी से भी शिकायत करेंगे , फिर तो हमने मामला गंभीर होता देखकर उसको सॉरी बोला फिर खूब मनाया और वो भी मान गई ,तो ऐसी थीं दोस्ती ,तब हमारी कहने पर भी न बात करना छोड़ा न ही शिकायत लगाई हमारी आंटी से. शरारत का मीटर कभी यूँ ही बढ़ जाता तो कभी थोड़ा कम हो जाता ,पर चालू ही रहता .पढ़ने में अच्छे थे तो सिर्फ वार्निंग देकर हमेशा छोड़ दिया गया.
और क्लास की लास्ट बेंच पर बैठकर रफ़ कॉपी में कभी ड्राइंग करना तो कभी राजा-मंत्री-चोर-सिपाही खेलना ये सब बहुत याद आता है कि काश हम वापस उस समय में, अपने बचपन में दुबारा लौट कर जा सकते तो कितना मज़ा आता वो सब फिर से जी पाते ,पर ये तो संभव ही नहीं है तो अपने बच्चों के बचपन में ही दुबारा अपना बचपन ढूँढ़ते हैं ,और फिर से एक बार बचपन जीने की कोशिश करते हैं.
वो रफ़ कॉपी खो गई और अब बैग भी नहीं कि जिसमे कॉपी रखी जाये ,हिसाब भी नहीं किया बहुत दिनों से दोस्तों के उस निश्छल प्रेम का, न ही उस गुस्से का .यादों के गुणा-भाग का समय ही नहीं मिलता अब ज़िन्दगी की ज़द्दो-ज़हद में . अगर कभी यादों की वो कॉपी हमें मिलेगी तो उसे लेकर बैठेंगे, फिर से पुरानी यादें खंगालेंगे. उस पर लिखे कुछ ऐसे शब्द और नाम हैं दोस्तों के जो शायद कभी दिल से नही मिटेंगे.
शायद इसलिए ही कहा गया है कि बचपन के दिन अनमोल होतें हैं ,वो भोलापन और मासूमियत तो अब नहीं है हममे क्योंकि ज़िन्दगी की बहुत सारी ज़िम्मेदारियों में कहीं खो गया वो सब ,पर शायद इसलिए ही हमें अपने बच्चों के बचपन को उन्हें पूरी तरह से जी लेने देना चाहिए ,शरारतें करने दीजिये उन्हें,मासूमियत से भरे उनके सवालों में ही तो बचपन है,तो उनके साथ कभी-कभी बच्चा बन जाइये और धमाचौकड़ी मचाकर चलो इस तरह से हम-आप भी फिर से बचपन ज़ी लेते हैं.
agar tumhe ye paragraph Accha lage
to. mark me brainlist and follow my profile
थोड़े बड़े होने पर जब स्कूल जाना पड़ा तो कुछ समय तक तो सजा जैसा ही लगता रहा स्कूल जाना कि सवेरे जल्दी उठो ,यूनिफार्म पहनो, स्कूल में पढाई करो (हालाँकि आजकल के बच्चों जितना संघर्ष पढाई के मामले में हम लोगों ने नहीं किया, इन बेचारे बच्चों को तो पढाई और एग्जाम से फुर्सत ही नहीं मिलती ), ओफ्फो सवेरे उठने में तो हालत ख़राब हो जाती थीं पर स्कूल तो जाना ही पड़ता था नहीं तो मम्मी अच्छे से खबर लेती थीं (अब जब मैं भी माँ हूँ तो समझ आया कि उन्हें उनका me time भी तो तभी मिलता होगा जब हम स्कूल जाते होंगे ).
शुरुआत में स्कूल नहीं अच्छा लगा पर बाद में ढेर सारे दोस्त बने और स्कूल जाना भी अच्छा लगने लग गया .छोटी-छोटी शरारतें जैसे किसी टीचर का मज़ाक बनाना और उनके पीरियड में हंसी रोके रखना या फिर धीर-धीरे खी-खी करके देर तक हँसते रहना. एक-दुसरे का टिफ़िन बिना-पूछे खा लेना और मेरा टिफ़िन कोई बिना पूछे खाये तो जमकर लड़ लेना.
घर पर भाई-बहनों के साथ लड़ना कभी वजह तो कभी बिना वजह और फिर मम्मी का डांटकर कहना कि हर समय लड़ते रहते हो बड़े होकर मिलने को भी तरसोगे,आज सच हो गया है .नानाजी -अम्मा(नानी) के घर गर्मी कि छुट्टियों में जाना और पेड़ों से आम -अमरुद खुद तोड़कर खाना हमारे लिए एडवेंचर स्पोर्ट्स से कम थोड़े ही था. अम्मा के हाथों के अचार और बड़ियाँ भी बहुत याद आती हैं.
थोड़े और बड़े होने पर दोस्ती और शरारतें दोनों ही बढ़े, चाट हो या पानी के बताशे दोस्तों के साथ खाने में बड़ा मज़ा आता था .कभी स्कूल के ग्राउंड में खेल कर धूल-धूसरित होना भी आनंद देता था और यूनिफार्म गन्दी होने पर मम्मी की फटकार उससे भी ज्यादा मज़ा देती थीं. इमली,कैथा और चूरन खाने का मज़ा शायद आजकल के बच्चे नहीं जान पाएंगे पर सच में क्या दिन थे बचपन के. साइंस के हमारे टीचर राणा सर को राणा टिगरीना बुलाना(पर ये सिर्फ नाम का मज़ाक था सर का नहीं), इंक पेन से सहेलियों के कपड़ों पर स्याही छिड़क देना तो बस बानगी भर हैं.
जब भी यादों के पन्ने खोलती हूँ तो यही शरारतें और भोले बचपन की यादें लिखी दिखाई पड़ती हैं . और हाँ जब अपनी एक सहेली को साबुन का छोटा सा टुकड़ा टॉफ़ी के बीच छुपकर खिला दिया था तब पहले तो वो खा गई बाद में खूब लड़ी कि हमको साबुन खिला दिया तुमने ,जाओ अब तुमसे बात नहीं करेंगे ,मम्मी से भी शिकायत करेंगे , फिर तो हमने मामला गंभीर होता देखकर उसको सॉरी बोला फिर खूब मनाया और वो भी मान गई ,तो ऐसी थीं दोस्ती ,तब हमारी कहने पर भी न बात करना छोड़ा न ही शिकायत लगाई हमारी आंटी से. शरारत का मीटर कभी यूँ ही बढ़ जाता तो कभी थोड़ा कम हो जाता ,पर चालू ही रहता .पढ़ने में अच्छे थे तो सिर्फ वार्निंग देकर हमेशा छोड़ दिया गया.
और क्लास की लास्ट बेंच पर बैठकर रफ़ कॉपी में कभी ड्राइंग करना तो कभी राजा-मंत्री-चोर-सिपाही खेलना ये सब बहुत याद आता है कि काश हम वापस उस समय में, अपने बचपन में दुबारा लौट कर जा सकते तो कितना मज़ा आता वो सब फिर से जी पाते ,पर ये तो संभव ही नहीं है तो अपने बच्चों के बचपन में ही दुबारा अपना बचपन ढूँढ़ते हैं ,और फिर से एक बार बचपन जीने की कोशिश करते हैं.
वो रफ़ कॉपी खो गई और अब बैग भी नहीं कि जिसमे कॉपी रखी जाये ,हिसाब भी नहीं किया बहुत दिनों से दोस्तों के उस निश्छल प्रेम का, न ही उस गुस्से का .यादों के गुणा-भाग का समय ही नहीं मिलता अब ज़िन्दगी की ज़द्दो-ज़हद में . अगर कभी यादों की वो कॉपी हमें मिलेगी तो उसे लेकर बैठेंगे, फिर से पुरानी यादें खंगालेंगे. उस पर लिखे कुछ ऐसे शब्द और नाम हैं दोस्तों के जो शायद कभी दिल से नही मिटेंगे.
शायद इसलिए ही कहा गया है कि बचपन के दिन अनमोल होतें हैं ,वो भोलापन और मासूमियत तो अब नहीं है हममे क्योंकि ज़िन्दगी की बहुत सारी ज़िम्मेदारियों में कहीं खो गया वो सब ,पर शायद इसलिए ही हमें अपने बच्चों के बचपन को उन्हें पूरी तरह से जी लेने देना चाहिए ,शरारतें करने दीजिये उन्हें,मासूमियत से भरे उनके सवालों में ही तो बचपन है,तो उनके साथ कभी-कभी बच्चा बन जाइये और धमाचौकड़ी मचाकर चलो इस तरह से हम-आप भी फिर से बचपन ज़ी लेते हैं.
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bachpan ki yaadan bari suhani hoti vo shararat jo sirf bachpan me ki wo ab nehi bachpan me Jo game khele wo aeb nehi Jo Masti Keri aeb behind thank
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