Badalne ki chamta buddhimatta ki Maaf Hai 521 speech
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बहुत से वैज्ञानिक भी ये मानते हैं कि इस दौर का इंसान अक़्लमंदी के शिखर पर है. इसे बुद्धिमत्ता का स्वर्ण युग कहा जा रहा है.
आज से सौ साल पहले आईक्यू टेस्ट यानी अक़्लमंदी मापने वाला टेस्ट ईजाद किया गया था. तब से पैदा हुई हर पीढ़ी ने इस टेस्ट में पिछली पीढ़ी के मुक़ाबले हमेशा बेहतर प्रदर्शन किया है. यानी 1919 के मुक़ाबले आज का औसत इंसान भी जीनियस है. वैज्ञानिक इसे फ़्लिन इफेक्ट कहते हैं.
हमें अक़्लमंदी के इस दौर का ख़ूब आनंद उठा लेना चाहिए. क्योंकि हालिया संकेत ये इशारा कर रहे हैं कि बुद्धिमत्ता का ये स्वर्ण युग ख़त्म होने वाला है. कुछ लोगों का दावा है कि इंसान बुद्धिमानी के शिखर पर पहुंच चुका है. अब उसकी अक़्ल का और विकास नहीं होगा.
क्या वाक़ई ऐसा है? क्या आज के दौर में मानवता बुद्धिमानी के शिखर पर पहुंच चुकी है? अगर, वाक़ई ऐसा है, तो फिर जब हमारी आने वाली पीढ़ियां धरती उतरेंगी, तो क्या वो कम बुद्धिमान होंगी? ऐसा हुआ तो क्या होगा?
इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए वक़्त के पहिये को पीछे की ओर घुमाते हैं और चलते हैं उस दौर में जब हमारे पुरखों ने चार पैरों के बजाय दो पांवों पर चलना शुरू किया था.
ऐसा क़रीब 30 लाख साल पहले हुआ था, जब प्राइमेट यानी वानर परिवार का विलुप्त हो चुका सदस्य ऑस्ट्रेलोपिथेकल ने दो पैरों पर चलना शुरू किया था. इसके कंकाल का अध्ययन कर के वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि उसका सिर 400 क्यूबिक सेंटीमीटर (सीसी) होता था. यानी ऑस्ट्रेलोपिथेकस का दिमाग़ आज के इंसान का एक तिहाई भर था.
इंसानी बुद्धि
इंसान का दिमाग कितना बड़ा?
आज मानव का जितना बड़ा दिमाग़ होता है, उतना किसी और जीव का नहीं होता. इसकी हम भारी क़ीमत चुकाते हैं. हमारा मस्तिष्क हमारे शरीर की कुल ऊर्जा की ज़रूरत का 20 फ़ीसद अकेले चट कर जाता है.
अब अगर, दिमाग़ को इतनी ऊर्जा चाहिए, तो ज़ाहिर है क़ुदरत ने उसके ज़िम्मे बड़े काम भी कर रखे होंगे, ताकि जो खाना वो हजम कर रहा है, उसके बदले उतना ही काम भी करे.
इंसान का दिमाग़ इतना विकसित होने के कई कारण बताए जाते हैं. लेकिन, वैज्ञानिक इस बात पर एक मत हैं कि इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत समूह में रहने की वजह से पैदा हुई.
ऑस्ट्रेलोपिथेकस के बाद से मानवों के पूर्वज बड़े-बडे समूहों में रहने लगे थे. इसकी बड़ी वजह शायद ख़ुद को शिकारी जानवरों से बचाने की थी.
क्योंकि, सोते वक़्त ऐसे जानवरों के हमले का ख़तरा तब से बढ़ गया था, जब से हमारे पुरखे पेड़ों से उतर कर ज़मीन पर रहने लगे थे.
दिमाग़ के विकास की ज़रूरत इसलिए भी पड़ी होगी, ताकि संसाधनों का मिलकर इस्तेमाल कर सकें. जैसे कि जोखिम भरे इलाक़ों में रहने के ख़तरों से एक-दूसरे को आगाह करना और एक-दूसरे के बच्चों की देखभाल करना.
लेकिन, दूसरे लोगों के साथ रहना मुश्किल भरा होता है. ये तो आप और हम अपने तजुर्बे से भी कह सकते हैं. कई लोग एक साथ रहते हैं, तो एक-दूसरे के मिज़ाज को समझना होता है. उनकी पसंद-नापसंद जाननी ज़रूरी होती है.
फिर, उन में से किस के साथ गप-शप की जा सकती है, ये अंदाज़ा लगाने की ज़रूरत भी होती है. साथ में शिकार करने वालों के बीच तालमेल होना बहुत ज़रूरी है.
जैसे, आज के दौर में लोगों को एक-दूसरे के मिज़ाज और सामाजिक ज़रूरतों को समझना होता है. वैसे ही, हमारे पुरखों के लिए एक-दूसरे को समझना जीवन-मरण का प्रश्न होता था.
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