badalne ki chamta hi buddhimatta ki Maaf hai
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।। बदलने की क्षमता ही बुद्धिमत्ता का माप है ।।
बदलने की क्षमता ही बुद्धिमत्ता का माप है। यदि आप स्वयं को नहीं बदल पा रहे हैं तो आप आगे नहीं बढ़ सकते और यदि आप आगे नहीं बढ़ सकते तो फिर आप बुद्धिमान नहीं है।
समय परिवर्तनशील है और मनुष्य को उस परिवर्तनशील समय के अनुसार स्वयं को लचीला बना लेना चाहिये। मनुष्य यदि समय में होने वाले परिवर्तन के अनुसार ही स्वयं को परिवर्तित करता रहेगा तो वह समय के साथ चल सकता है। इस संसार में कुछ भी स्थाई नहीं है। संसार में पल-पल, प्रतिक्षण कुछ ना कुछ बदलता ही रहता है। पुराने को भूल कर नए का स्वागत करना ही समझदारी है। इसलिए बदलाव की क्षमता बुद्धिमत्ता का पैमाना है इस बात में कोई संदेह नहीं।
हमने जीव विज्ञान की पुस्तकों में भी पढ़ा है। डार्विन के सिद्धांत बताए गए हैं जिनके अनुसार जिन प्राणियों की प्रजातियां जलवायु में परिवर्तन के अनुसार स्वयं को बदल नहीं सकीं वो नष्ट हो गई और जिन्होंने वातावरण के अनुसार को खुद को ढाल लिया वो प्रजातियां सुरक्षित रह गयीं। डायनासौर उन लुप्त प्रजातियों का उदाहरण है। जिराफ जिनकी गर्दन पहले छोटी होती थी वो जलवायु में परिवर्तन के अनुसार खुद ढालते गये और इस प्रक्रिया में उनकी गर्दन लंबी होती गयी और वे आज तक विद्यमान हैं।
थोड़ा दार्शनिक या काव्यात्मक दृष्टि से इसका उदाहरण लेकर विवेचन करते हैं। जब आंधी-तूफान आता है तो जो लचीले वृक्ष होते हैं वो हवा के रुख के अनुसार स्वयं को झुका लेते हैं जिससे वे टूटने से बच जाते हैं लेकिन जो कठोर वृक्ष होते हैं, वो अपनी अकड़ में स्वयं को नही झुका पाते और तेज आँधी में टूट कर उखड़ जाते हैं और उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इस उदाहरण से हम समझ सकते हैं कि समय के अनुसार खुद को बदल लेने से हम अपने अस्तित्व को बचायें रख सकते हैं।
जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में नित्य नए-नए खोज हो रहे हैं और नए नए प्रयोग हो रहे हैं यह सब बदलाव का ही सूचक है। मानव की सोच और विचारधारा भी परिवर्तित होती जा रही है। जो लोग अपनी पुरानी बेड़ियों और कुरीतियों को त्याग कर प्रगतिशील विचारधारा को अपना रहे हैं वो आज के समाज में सामंजस्य बिठाने में सक्षम हो पा रहे हैं जो लोग ऐसा नही कर पा रहे हैं वो जीवन के क्षेत्र में पिछड़ते जा रहे हैं।
यदि मनुष्य के अंदर स्वयं को बदल लेने की प्रवृत्ति नहीं होती तो क्या जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इतने क्रांतिकारी परिवर्तन संभव हो पाते? क्या जैसा अति विकसित समाज आज हम बना पाये हैं क्या वैसा विकसित समाज संभव हो पाता? तकनीक क्षेत्र में जितनी उन्नति मनुष्य ने की है क्या वो संभव हो पाती? आदिम युग के कठिन व दुरुह जीवन से मनुष्य आज सरल व सुमग जीवन तक पहुँचा है तो ये बदलाव की क्षमता के कारण संभव हो पाया।
निरंतर बदलाव करते रहने की प्रवृत्ति से ही तो मानस आदिम युग से उठकर इस विकसित समाज तक आ पहुंचा है। इसलिए बदलाव की क्षमता ही बुद्धिमत्ता है यह बात सौ टका खरी है।
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