Hindi, asked by jatiny172, 8 months ago

भाग-'क' (अपठित बोध)
प्रश्ननिम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए-
जिसे भारतीय संस्कृति कहा जाना चाहिए वह आज भारतीय मानसिक क्षितिज में क्रियाशील नहीं है। आज एक प्रकार
की अव्यवस्थित व्यावसायिक संस्कृति व्याप्त है, जिसकी जड़ शायद यूरोप में है। भारतीयों के सार्वजनिक व्यवहार में गुरू
शिष्य संबंधों का भी तदनुरूप परिवर्तन हो गया है। यहाँ गुरू वेतन- भोगी नहीं होते थे और न ही शिष्य को शुल्क देना
पड़ता था। पैसे देकर विद्या खरीदने की यह क्रय-विक्रय पद्धति निस्संदेह इस भारतीय मिट्टी की उपज नहीं है। यहाँ
शिक्षणालय एक प्रकार के आश्रम अथवा मंदिर के समान थे। गुरू को साक्षात् परमेश्वर ही समझा जाता था। शिष्य, पुत्र से
अधिक प्रिय थे। यहाँ सम्मान मिलना ही शक्ति पाने का रहस्य रहा है। प्राचीन समय में गुरू की शिक्षादान- क्रिया उनका
आध्यात्मिक अनुष्ठान थी। परमेश्वर प्राप्ति का उनका वह एक माध्यम था। वह आज पेट पालने का जरिया बन गई है। प्रारंभ
में विवेकानन्द को भारत में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हुआ, पर जब उन्होंने अमेरिका में नाम कमा लिया तो भारतवासी
दौड़े- मालाएँ लेकर स्वागत करने। रवींद्रनाथ ठाकुर को भी जब नोबेल पुरस्कार मिला तो बंगाली लोग दौड़े यह राग
अलापते हुए- अमादेर ठाकुर, अमादेर सोनार कठोर सुपूत... | दक्षिण भारत में कुछ समय पहले तक भरतनाट्यम और
कथकली को कोई नहीं पूछता था, जब उसे विदेशों में मान मिलने लगा तो आश्चर्य से भारतवासी सोचने लगे, अरे! हमारी
संस्कृति में इतनी अपूर्व चीजें भी पड़ी थी, क्या ? यहाँ के लोगों को अपनी खूबसूरती नहीं नजर आती, मगर पराए के
सौंदर्य को देखकर मोहित हो जाते हैं।
(क) उपर्युक्त गद्यांश का मूलभाव स्पष्ट कीजिए।
(ख) 'निस्संदेह', 'रवीन्द्र' संधि-विच्छेद कीजिए।
(2)
(ग) “भारतीय संस्कृति आज भारतीय मानसिक क्षितिज में क्रियाशील नहीं है। ऐसा क्यों कहा गया है? (2)
(घ) भारतीय संस्कृति में शिक्षा का स्वरूप कैसा था?
(2)
(ड) भारतीय संस्कृति के संबंध में भारतीयों का दृष्टिकोण स्पष्ट कीजिए।.

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Answered by thughydra22
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भाग-'क' (अपठित बोध)

प्रश्ननिम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए-

जिसे भारतीय संस्कृति कहा जाना चाहिए वह आज भारतीय मानसिक क्षितिज में क्रियाशील नहीं है। आज एक प्रकार

की अव्यवस्थित व्यावसायिक संस्कृति व्याप्त है, जिसकी जड़ शायद यूरोप में है। भारतीयों के सार्वजनिक व्यवहार में गुरू

शिष्य संबंधों का भी तदनुरूप परिवर्तन हो गया है। यहाँ गुरू वेतन- भोगी नहीं होते थे और न ही शिष्य को शुल्क देना

पड़ता था। पैसे देकर विद्या खरीदने की यह क्रय-विक्रय पद्धति निस्संदेह इस भारतीय मिट्टी की उपज नहीं है। यहाँ

शिक्षणालय एक प्रकार के आश्रम अथवा मंदिर के समान थे। गुरू को साक्षात् परमेश्वर ही समझा जाता था। शिष्य, पुत्र से

अधिक प्रिय थे। यहाँ सम्मान मिलना ही शक्ति पाने का रहस्य रहा है। प्राचीन समय में गुरू की शिक्षादान- क्रिया उनका

आध्यात्मिक अनुष्ठान थी। परमेश्वर प्राप्ति का उनका वह एक माध्यम था। वह आज पेट पालने का जरिया बन गई है। प्रारंभ

में विवेकानन्द को भारत में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हुआ, पर जब उन्होंने अमेरिका में नाम कमा लिया तो भारतवासी

दौड़े- मालाएँ लेकर स्वागत करने। रवींद्रनाथ ठाकुर को भी जब नोबेल पुरस्कार मिला तो बंगाली लोग दौड़े यह राग

अलापते हुए- अमादेर ठाकुर, अमादेर सोनार कठोर सुपूत... | दक्षिण भारत में कुछ समय पहले तक भरतनाट्यम और

कथकली को कोई नहीं पूछता था, जब उसे विदेशों में मान मिलने लगा तो आश्चर्य से भारतवासी सोचने लगे, अरे! हमारी

संस्कृति में इतनी अपूर्व चीजें भी पड़ी थी, क्या ? यहाँ के लोगों को अपनी खूबसूरती नहीं नजर आती, मगर पराए के

सौंदर्य को देखकर मोहित हो जाते हैं।

(क) उपर्युक्त गद्यांश का मूलभाव स्पष्ट कीजिए।

(ख) 'निस्संदेह', 'रवीन्द्र' संधि-विच्छेद कीजिए।

(2)

(ग) “भारतीय संस्कृति आज भारतीय मानसिक क्षितिज में क्रियाशील नहीं है। ऐसा क्यों कहा गया है? (2)

(घ) भारतीय संस्कृति में शिक्षा का स्वरूप कैसा था?

(2)

(ड) भारतीय संस्कृति के संबंध में भारतीयों का दृष्टिकोण स्पष्ट कीजिए।.

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भाग-'क' (अपठित बोध)

प्रश्ननिम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए-

जिसे भारतीय संस्कृति कहा जाना चाहिए वह आज भारतीय मानसिक क्षितिज में क्रियाशील नहीं है। आज एक प्रकार

की अव्यवस्थित व्यावसायिक संस्कृति व्याप्त है, जिसकी जड़ शायद यूरोप में है। भारतीयों के सार्वजनिक व्यवहार में गुरू

शिष्य संबंधों का भी तदनुरूप परिवर्तन हो गया है। यहाँ गुरू वेतन- भोगी नहीं होते थे और न ही शिष्य को शुल्क देना

पड़ता था। पैसे देकर विद्या खरीदने की यह क्रय-विक्रय पद्धति निस्संदेह इस भारतीय मिट्टी की उपज नहीं है। यहाँ

शिक्षणालय एक प्रकार के आश्रम अथवा मंदिर के समान थे। गुरू को साक्षात् परमेश्वर ही समझा जाता था। शिष्य, पुत्र से

अधिक प्रिय थे। यहाँ सम्मान मिलना ही शक्ति पाने का रहस्य रहा है। प्राचीन समय में गुरू की शिक्षादान- क्रिया उनका

आध्यात्मिक अनुष्ठान थी। परमेश्वर प्राप्ति का उनका वह एक माध्यम था। वह आज पेट पालने का जरिया बन गई है। प्रारंभ

में विवेकानन्द को भारत में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हुआ, पर जब उन्होंने अमेरिका में नाम कमा लिया तो भारतवासी

दौड़े- मालाएँ लेकर स्वागत करने। रवींद्रनाथ ठाकुर को भी जब नोबेल पुरस्कार मिला तो बंगाली लोग दौड़े यह राग

अलापते हुए- अमादेर ठाकुर, अमादेर सोनार कठोर सुपूत... | दक्षिण भारत में कुछ समय पहले तक भरतनाट्यम और

कथकली को कोई नहीं पूछता था, जब उसे विदेशों में मान मिलने लगा तो आश्चर्य से भारतवासी सोचने लगे, अरे! हमारी

संस्कृति में इतनी अपूर्व चीजें भी पड़ी थी, क्या ? यहाँ के लोगों को अपनी खूबसूरती नहीं नजर आती, मगर पराए के

सौंदर्य को देखकर मोहित हो जाते हैं।

(क) उपर्युक्त गद्यांश का मूलभाव स्पष्ट कीजिए।

(ख) 'निस्संदेह', 'रवीन्द्र' संधि-विच्छेद कीजिए।

(2)

(ग) “भारतीय संस्कृति आज भारतीय मानसिक क्षितिज में क्रियाशील नहीं है। ऐसा क्यों कहा गया है? (2)

(घ) भारतीय संस्कृति में शिक्षा का स्वरूप कैसा था?

(2)

(ड) भारतीय संस्कृति के संबंध में भारतीयों का दृष्टिकोण स्पष्ट कीजिए।.

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