भोलाराम का जीव एक व्यंग नहीं बल्कि समाज का दर्पण भी है उक्त कथन का चित्रण कीजिए
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‘हरिशंकर परसाई’ द्वारा लिखित रचित ‘भोलाराम का जीव’ एक व्यंग ही नहीं बल्कि हमारे समाज का दर्पण भी है।
इस व्यंग के माध्यम से लेखक ने समाज की बुराई पर व्यंग किया है, वह हमारे समाज में गहराई तक अपनी जड़ें जमा चुकी है, और वो बुराई है भ्रष्टाचार। हमारे सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार एक आम बात हो गई है और बिना रिश्वत दिए कोई भी कार्य नहीं होता, यह पूरी तरह सच्चाई है। इसलिए अगर लेखक ने अपने व्यंग्य में इस बात को रेखांकित किया है तो लेखक ने समाज को आईना दिखाने की कोशिश की है।
हमारे सरकारी दफ्तरों, शासन-प्रशासन और समाज के लोगों में भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति जिस तरह पनपने लगी है, वो सच्चाई किसी से छुपी नहीं है। लेखक ने वही दिखाने का प्रयत्न किया है, जो हमारे समाज और हमारी शासन व्यवस्था में प्रचलित है, यानी कि भ्रष्टाचार। इसलिए यह व्यंग चित्र एक व्यंग ही नहीं बल्कि समाज का दर्पण भी है।
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