भारति, जय, विजय करे
कनक-शस्य-कमल धरे।
लंका पदतल-शतदल,
गर्जितोर्मि सागर-जल,
धोता शुचि चरण-युगल,
स्तव कर बहु-अर्थ भरे।
तरु-तृण-वन-लता वसन,
अँचल में खचित सुमन,
गंगा ज्योतिर्जल-कण,
धवल-धार हार गले।
मुकुट शुभ्र हिम-तुषार,
प्राण प्रणव ओंकार,
ध्वनित दिशाएँ उदार,
शतमुख-शतरव-मुखरे।
-सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला
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