भारत को प्रतिभा वनों का देश क्यों कहा जाता है
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भारत में वानिकी एक प्रमुख ग्रामीण आर्थिक क्रिया, जनजातीय लोगों के जीवन से जुड़ा एक महत्वपूर्ण पहलू और एक ज्वलंत पर्यावरणीय और सामाजिक-राजनैतिक मुद्दा होने के साथ ही पर्यावरणीय प्रबंधन और धारणीय विकास हेतु अवसर उपलब्ध करने वाला क्षेत्र भी है।[1]
तेंदू पत्ता संग्रहण
एक वनोपज - महुआ
खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ॰ए॰ओ॰) के अनुसार वर्ष २००२ में भारत में वनों का क्षेत्रफल ६४ मिलियन हेक्टेयर था जो कुल क्षेत्रफल का लगभग १९% था[2] और मौजूदा आंकलनों के अनुसार भारत में वन और वृक्ष क्षेत्र 78.29 मिलियन हेक्टेयर है, जो देश के भैगोलिक क्षेत्र का 23.81 प्रतिशत है और 2009 के आंकलनों की तुलना में, व्याख्यात्मक बदलावों को ध्यान में रखने के पश्चात देश के वन क्षेत्र में 367 वर्ग कि॰मी॰ की कमी दर्ज की गई है।[3]
उपरोक्त आँकड़ों के आधार पर भारत विश्व के दस सर्वाधिक वन क्षेत्र वाले देशों में से एक है लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था में वनों का योगदान काफी कम है और राष्ट्रीय आय में वनों का योगदान २००२ में मात्र १.७% था। साथ ही जनसंख्या के अनुपात में देखा जाए तो स्थिति और खराब नजर आती है क्योंकि भारत में इसी समय के आंकड़ों के अनुसार प्रति व्यक्ति वन क्षेत्र ०.०८ हेक्टेयर था जो विकासशील देशों के लिये औसत ०.५ हेक्टेयर है और पूरे विश्व के लिये ०.६४ हेक्टेयर है।[2]
आर्थिक योगदान के अलावा वन संसाधनों का महत्व इसलिए भी है कि ये हमें बहुत से प्राकृतिक सुविधाएँ प्रदान करते हैं जिनके लिये हम कोई मूल्य नहीं प्रदान करते और इसीलिए इन्हें गणना में नहीं रखते। उदाहरण के लिये हवा को शुद्ध करना और सांस लेने योग्य बनाना एक ऐसी प्राकृतिक सेवा है जो वन हमें मुफ़्त उपलब्ध करते हैं और जिसका कोई कृत्रिम विकल्प इतनी बड़ी जनसंख्या के लिये नहीं है। वनों के क्षय से जनजातियों और आदिवासियों का जीवन प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है[3] और बाकी लोगों का अप्रत्यक्ष रूप से क्योंकि भारत में जनजातियों की पूरी जीवन शैली वनों पर आश्रित है।