भारत में आर्थिक उदारीकरण पर निबन्ध | Hindi Essay on Economic Liberalization in India
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"भारत में आर्थिक उदारीकरण"
15 अगस्त 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ उसकी अर्थव्यवस्था स्वरूप मिलाजुला था। भारत के आर्थिक ढांचे को विकसित करने के लिए रूस के मॉडल पर आधारित पंचवर्षीय योजनाएं बनाई गई थी। विकसित देश अमेरिकी पूंजीवाद और रूसी समाजवाद के मिश्रण से एक आदर्श आर्थिक व्यवस्था विकसित करने का उस समय की सरकार ने स्वप्न देखा था। लेकिन घाटे के चलते हुए योजनाएं पूर्ण नहीं हो पाई।
1970 और 80 के दशक में यूरोप और अमेरिका के पूंजीवाद के सम्मुख भी संकट उपस्थित हो गया, यहां आर्थिक मंदी और बेकारी से यूरोप में अशांति बढ़ने लगी उनकी औद्योगिक उत्पादन की खपत उपनिवेशवाद की समाप्ति के कारण कम हो गई थी। अपने माल की खपत के लिए अब और संभावनाएं तलाशी जाने लगी तथा दूसरे देशों में संपर्क किया जाने लगा। फिर विश्व व्यापार मंडल का संगठन किया गया।
नए पेटेंट तथा कर मुक्त के प्रणाली की अवधारणा से व्यापार बढ़ने लगा। बहुराष्ट्रीय कंपनी को किसी भी देश में व्यापार करने का पूरा अधिकार मिल गया और उनके साथ देसी कंपनियों की तरह समानता का व्यवहार करना आवश्यक हो गया।
आर्थिक उदारीकरण यदि अपनी आवश्यकताओं के अनुसार हो तो अच्छा है परंतु यदि मजबूरी में हो तो यह विनाशकारी है आजकल जिस उदारीकरण की बात चल रही है I उसमे पश्चिम के राष्ट्र उदारता की अपेक्षा क्रूरता दिखा रहे हैं, यदि सरकार तत्कालीन आर्थिक संकट से निपटने के लिए सार्वजनिक उद्योग बेचकर धन इकट्ठा करती है, तो यहउदारीकरण नहीं विनाश है I
उदारीकरण करते समय ध्यान रखना चाहिए कि देश में यूनियन कार्बाइड जैसे कारखाने न लगे जिससे निकली जहरीली गैस से हजारों लोग मर गए थे। सार्वजनिक उद्योग निजी हाथों में देने मात्र से सुधार नहीं होगा। पंजीकरण करते समय भ्रष्टाचार ना बढ़े इसका भी ध्यान रखना होगा। निजीकरण क्यों किया जा रहा है इस विषय पर जनता को भी समझाना चाहिए।
भारत एक कल्याणकारी राज्य है सरकारी संरक्षण और पोषण की आवश्यकता अनेक क्षेत्रों में है। अंधाधुंध उदारीकरण हमारी अर्थव्यवस्था को चौपट कर सकता है। हमारी कृषि, हमारे उद्योग, हमारे सेवा क्षेत्र नष्ट हो सकते हैं और हम आर्थिक गुलामी के शिकार हो सकते हैं इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए।