भारत में जूट उद्योग के प्रमुख महत्व
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भारतीय अर्थव्यवस्था में जूट उद्योग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 19वीं शताब्दी तक यह उद्योग कुटी एवं लघु उद्योगों के रूप में विकसित था एवं विभाजन से पूर्व जूट उद्योग के मामले में भारत का एकाधिकार था। विशेष रूप से कच्चा जूट भारत से स्कॉटलैंड भेजा जाता था।
निर्यात:
भारतीय जूट उद्योग परम्परागत रूप से निर्यात प्रधान रहा है। अविभाजित भारत का तो इस क्षेत्र में एकाधिकार था लेकिन धीरे-धीरे निर्यात व्यापार में गिरावट आती गई। 1964-65 में समस्त जूट उत्पादन का 72 प्रतिशत भाग निर्यात कर दिया जाता था जो घटकर 1989-90 में 17 प्रतिशत रह गया। पिछले कई वर्षों से (1992-95) अमेरिका, जापान, रूस आस्ट्रेलिया एवं यूरोपीय देशों में माँग स्थिर बनी हुई है। तालिका-2 में जूट निर्यात व्यापार को दर्शाया गया है।
प्रमुख समस्याएँ:
देश के विभाजन से भारतीय जूट उद्योग को झटका उस समय लगा जब जूट उत्पादन क्षेत्र का 72 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तान (बांग्लादेश) के हिस्से में आया तथा लगभग सभी कारखाने भारत के हिस्से में आये। इस समस्या का समाधान संरक्षण एवं प्रोत्साहन द्वारा जूट का बुवाई क्षेत्र बढ़ाकर कुछ ही वर्षों में कर लिया गया। लेकिन जूट उद्योगों को 60 व 70 के दशक में उस समय भारी झटका लगा जब विश्व में जूट के मुकाबले में सिंथेटिक फाइबर (पाॅलिप्रोपलीन) का उपयोग किया जाने लगा। अमेरिका, कनाडा तथा यूरोपीय देशों में जूट की वैकल्पिक वस्तुओं का प्रयोग बढ़ने के कारण माँग में कमी आई है। विश्व के विभिन्न देशों में जैसे केनप, टिनेक्स, वरलम इत्यादि सस्ती पैकिंग सामग्री के कारण विदेशी माँग में वृद्धि नहीं हो रही है। पिछले 5 वर्षों में जूट उद्योग ने अपना 20 प्रतिशत बाजार खो दिया है। विदेशी बाजार के साथ-साथ घरेलू बाजार में भी जूट उत्पादों की खपत में निरन्तर गिरावट आ रही है। अनाज के क्षेत्र में 1992-93 में खपत 430 टन थी जो 1996-97 में घटकर 375 टन रह गयी। यूरिया क्षेत्र में 1992-93 में खपत 102 टन थी जो 1996-97 में घटकर 57 टन रह गयी। सीमेंट के क्षेत्र में तो यह गिरावट बहुत ज्यादा दर्ज की गयी है। घरेलू और अन्तरराष्ट्रीय बाजारों में इसकी घटती हुई हिस्सेदारी इस उद्योग के लिये खतरे की घंटी है।