भारत में रोजगार की कमी इतना क्यों है कारण क्या है
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illiteracy is the main cause
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भारत के लोग स्मार्ट और सृजनात्मक होते हैं. उन्होंने यह साबित किया है कि वे परिश्रमी और मितव्ययी होते हैं. भारत की धरती को कई तरह की नेमतें मिली हुई हैं, जिनमें एक अच्छी जलवायु और ढेर सारे प्राकृतिक संसाधन शामिल हैं. इस देश का लोकतंत्र शानदार है जिसकी जड़ें बेहद मजबूत हैं और यहां का शासन कानून-सम्मत है. लेकिन अब सवाल यह है कि आज़ादी के 53 साल बाद भी भारत एक बेहद गरीब देश क्यों है?
वे क्या कारण हैं जो भारत को गरीब और अमेरिका को एक अमीर देश बनाते हैं- ऐसे में जबकि एक समान राजनैतिक ढांचा है, काम के मोर्चे पर समान उदार विचारधाराएं और मान्यताएं हैं. इतना ही नहीं, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों देशों में मेधावी और परिश्रमी मानव संसाधन के समृद्ध स्रोत हैं. ऐसा क्यों है कि भारत का प्रति व्यक्ति जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) 500 अमेरिकी डॉलर है जबकि अमेरिका का करीब 40,000 डॉलर? क्यों एक अमेरिकी नागरिक 80 गुना अधिक उत्पादक है? एक शिक्षित भारतीय अमेरिका में बहुत ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक होता है, यह बात इस तथ्य से प्रमाणित होती है कि एक भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक का औसत जीडीपी 60,000 डॉलर है. दरअसल, ऐसा अमेरिका में क्या है कि ज्यादातर मामलों में वह भारतीयों को अपनी घरेलू जमीन से बेहतर प्रदर्शन करवाता है, वह भी इतना अच्छा काम कि कई मामलों में भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक अपने साथी मूल अमेरिकियों से भी ज्यादा अच्छा काम करते हैं.
मैंने सुना है कि भारत अपनी औपनिवेशिक वजहों के कारण गरीब है. लेकिन हकीकत यह है कि अपनी आजादी के 53 वर्ष के बाद भारतीय अमेरिकियों की तुलना में खराब स्थिति में हैं. ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब भारत की हालत भी एशियन टाइगर्स या चीन के समान ही थी. पिछले 40 वर्षों में इन सभी देशों ने भारत को पीछे छोड़ दिया है.
अपने तर्क को स्थापित करने की खातिर हम फिलहाल अपनी बात को अमेरिका और भारत पर ही फोकस करेंगे. मेरा मानना यह है कि भारत जान-बूझकर गरीब है और वह गरीब बने रहने के लिए कड़ी मेहनत करता है जबकि इसके विपरीत अमेरिका अमीर इसलिए है क्योंकि वह न केवल अपनी संपत्ति को बनाए रखने के लिए बल्कि हर रोज खुद को ज्यादा धनवान बनाने के लिए कठोर परिश्रम करता है. भारत गरीब इसलिए है क्योंकि उसने खुद को आत्मघाती रूप से गरीबी पर पूरी तरह केंद्रित कर रखा है. देश के अथाह संसाधनों का इस्तेमाल गरीबों को आर्थिक सहायता और रोजगार मुहैया करवाने में किया जाता है. दरअसल भारत में नौकरियों को अति पवित्र माना जाता है और यह देश अनुत्पादक नौकरियों को बचाने के लिए काफी हद तक कुछ भी करने के लिए तैयार रहता है. इसके विपरीत अमेरिका में जहां उत्पादकता को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाता है और उत्पादक लोग सबसे ज्यादा कमाई करते हैं. संक्षेप में कहा जाए तो उत्पादकता से मिलने वाले फायदों के लिये किए जाने वाले अथक प्रयास अमेरिकी समृद्धि की हकीकत है जबकि नौकरियों को सुरक्षित बनाए रखना भारतीय गरीबी की असलियत है. इस बात को यदि और सरल शब्दों में कहा जाए तो अमेरिका उस राजनीति का अनुसरण करता है जिससे संपत्ति का सृजन होता है जबकि भारत उस राजनीति के पीछे बढ़ता है जिसमें संपत्ति का पुनर्वितरण होता है. राष्ट्रीय संपदा के अभाव में भारत गरीबी का पुनर्वितरण करता है और गरीब ही बना रहता है जबकि अमेरिका ज्यादा अमीरी से और भी ज्यादा अमीरी की ओर बढ़ता है.
नौकरियां बनाम उत्पादकता
भारत में जॉब एक ऐसी चीज है जिस पर जरूरत से ज्यादा ध्यान दिया जाता है. मैंने वरिष्ठ मंत्रियों और नौकरशाहों (ब्यूरोक्रेट्स) से सुना है कि सरकार के लिए सबसे बड़ा काम है रोजगार उपलब्ध करवाना. भारत में कल-पुरजों को जोड़ कर असेंबल्ड गुड्स बनाने संबंधी असेंबली जॉब्स उपलब्ध करवाने की कवायद के लिए बड़े-बड़े पदों पर लोगों की नियुक्तियां की जाती हैं. अस्सी के दशक के शुरू में "स्क्रूड्राइवर असेंबली प्लांट" चलन में थे जब एक मैन्यूफेक्चरर महज एक ही पूंजीगत उपकरण (केपिटल इक्विपमेंट) की सप्लाई करता था, वह था पेंचकस यानी स्क्रूड्राइवर.
अत्यधिक संरक्षणवादी श्रम कानूनों ने अन्य सभी लोगों और पक्षों की कीमत पर संगठित श्रमिक क्षेत्र को अधिकतम संरक्षण दे रखा है. ऐसे कानूनों की वजह से कारोबार करने के लिए नौकरी देने वाले बहुत ज्यादा हतोत्साहित होते हैं. आगे बताई जाने वाली कहानियां मुझे अपनी यह बात साबित करने में मदद करेंगी कि क्यों अनुत्पादक रोजगार गरीबी की दिशा में ले जाते हैं.
मैं सबसे पहले 80 के दशक के मध्य की उस स्टोरी की चर्चा करूंगा जो मेरा अपना अनुभव है. कंप्यूटर नेटवर्किंग बोर्ड्स के सप्लायर्स के रूप में हमें एक भारतीय कंप्यूटर उत्पादक की ओर से 200 अनअसेम्बल्ड कंप्यूटर बोर्ड्स या जिसे भारत में "खुले हुए पुर्जों के किट्स" (“knocked down kits”) कहा जाता है, के लिए एक “निवेदन“ (“request for quote”) मिला. हमने अपने अनअसेम्बल्ड बोर्ड्स नहीं भेजे और 20 फीसदी स्पेशल हैंडलिंग चार्जेस की मांग की जिसे देने के लिए वे तैयार थे. भारत सरकार ने पूरी तरह असेम्बल्ड बोर्ड्स पर लगे 300 फीसदी आयात शुल्क की तुलना में पुर्जों पर 70 फीसदी आयात शुल्क लगा रखा था. ताकि स्थानीय स्तर पर लोगों के लिए रोजगार के अवसर मिल सकें. 20 फीसदी ज्यादा देकर कम हासिल करना, कैसा सौदा है यह? यानी बगैर असेम्बल किए, बगैर जांचे-परखे बोर्ड आर्थिक रूप से कैसे लाभप्रद हो सकते हैं? ऐसे जॉब्स को किस आधार पर उत्पादक माना जाए?
वे क्या कारण हैं जो भारत को गरीब और अमेरिका को एक अमीर देश बनाते हैं- ऐसे में जबकि एक समान राजनैतिक ढांचा है, काम के मोर्चे पर समान उदार विचारधाराएं और मान्यताएं हैं. इतना ही नहीं, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों देशों में मेधावी और परिश्रमी मानव संसाधन के समृद्ध स्रोत हैं. ऐसा क्यों है कि भारत का प्रति व्यक्ति जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) 500 अमेरिकी डॉलर है जबकि अमेरिका का करीब 40,000 डॉलर? क्यों एक अमेरिकी नागरिक 80 गुना अधिक उत्पादक है? एक शिक्षित भारतीय अमेरिका में बहुत ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक होता है, यह बात इस तथ्य से प्रमाणित होती है कि एक भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक का औसत जीडीपी 60,000 डॉलर है. दरअसल, ऐसा अमेरिका में क्या है कि ज्यादातर मामलों में वह भारतीयों को अपनी घरेलू जमीन से बेहतर प्रदर्शन करवाता है, वह भी इतना अच्छा काम कि कई मामलों में भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक अपने साथी मूल अमेरिकियों से भी ज्यादा अच्छा काम करते हैं.
मैंने सुना है कि भारत अपनी औपनिवेशिक वजहों के कारण गरीब है. लेकिन हकीकत यह है कि अपनी आजादी के 53 वर्ष के बाद भारतीय अमेरिकियों की तुलना में खराब स्थिति में हैं. ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब भारत की हालत भी एशियन टाइगर्स या चीन के समान ही थी. पिछले 40 वर्षों में इन सभी देशों ने भारत को पीछे छोड़ दिया है.
अपने तर्क को स्थापित करने की खातिर हम फिलहाल अपनी बात को अमेरिका और भारत पर ही फोकस करेंगे. मेरा मानना यह है कि भारत जान-बूझकर गरीब है और वह गरीब बने रहने के लिए कड़ी मेहनत करता है जबकि इसके विपरीत अमेरिका अमीर इसलिए है क्योंकि वह न केवल अपनी संपत्ति को बनाए रखने के लिए बल्कि हर रोज खुद को ज्यादा धनवान बनाने के लिए कठोर परिश्रम करता है. भारत गरीब इसलिए है क्योंकि उसने खुद को आत्मघाती रूप से गरीबी पर पूरी तरह केंद्रित कर रखा है. देश के अथाह संसाधनों का इस्तेमाल गरीबों को आर्थिक सहायता और रोजगार मुहैया करवाने में किया जाता है. दरअसल भारत में नौकरियों को अति पवित्र माना जाता है और यह देश अनुत्पादक नौकरियों को बचाने के लिए काफी हद तक कुछ भी करने के लिए तैयार रहता है. इसके विपरीत अमेरिका में जहां उत्पादकता को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाता है और उत्पादक लोग सबसे ज्यादा कमाई करते हैं. संक्षेप में कहा जाए तो उत्पादकता से मिलने वाले फायदों के लिये किए जाने वाले अथक प्रयास अमेरिकी समृद्धि की हकीकत है जबकि नौकरियों को सुरक्षित बनाए रखना भारतीय गरीबी की असलियत है. इस बात को यदि और सरल शब्दों में कहा जाए तो अमेरिका उस राजनीति का अनुसरण करता है जिससे संपत्ति का सृजन होता है जबकि भारत उस राजनीति के पीछे बढ़ता है जिसमें संपत्ति का पुनर्वितरण होता है. राष्ट्रीय संपदा के अभाव में भारत गरीबी का पुनर्वितरण करता है और गरीब ही बना रहता है जबकि अमेरिका ज्यादा अमीरी से और भी ज्यादा अमीरी की ओर बढ़ता है.
नौकरियां बनाम उत्पादकता
भारत में जॉब एक ऐसी चीज है जिस पर जरूरत से ज्यादा ध्यान दिया जाता है. मैंने वरिष्ठ मंत्रियों और नौकरशाहों (ब्यूरोक्रेट्स) से सुना है कि सरकार के लिए सबसे बड़ा काम है रोजगार उपलब्ध करवाना. भारत में कल-पुरजों को जोड़ कर असेंबल्ड गुड्स बनाने संबंधी असेंबली जॉब्स उपलब्ध करवाने की कवायद के लिए बड़े-बड़े पदों पर लोगों की नियुक्तियां की जाती हैं. अस्सी के दशक के शुरू में "स्क्रूड्राइवर असेंबली प्लांट" चलन में थे जब एक मैन्यूफेक्चरर महज एक ही पूंजीगत उपकरण (केपिटल इक्विपमेंट) की सप्लाई करता था, वह था पेंचकस यानी स्क्रूड्राइवर.
अत्यधिक संरक्षणवादी श्रम कानूनों ने अन्य सभी लोगों और पक्षों की कीमत पर संगठित श्रमिक क्षेत्र को अधिकतम संरक्षण दे रखा है. ऐसे कानूनों की वजह से कारोबार करने के लिए नौकरी देने वाले बहुत ज्यादा हतोत्साहित होते हैं. आगे बताई जाने वाली कहानियां मुझे अपनी यह बात साबित करने में मदद करेंगी कि क्यों अनुत्पादक रोजगार गरीबी की दिशा में ले जाते हैं.
मैं सबसे पहले 80 के दशक के मध्य की उस स्टोरी की चर्चा करूंगा जो मेरा अपना अनुभव है. कंप्यूटर नेटवर्किंग बोर्ड्स के सप्लायर्स के रूप में हमें एक भारतीय कंप्यूटर उत्पादक की ओर से 200 अनअसेम्बल्ड कंप्यूटर बोर्ड्स या जिसे भारत में "खुले हुए पुर्जों के किट्स" (“knocked down kits”) कहा जाता है, के लिए एक “निवेदन“ (“request for quote”) मिला. हमने अपने अनअसेम्बल्ड बोर्ड्स नहीं भेजे और 20 फीसदी स्पेशल हैंडलिंग चार्जेस की मांग की जिसे देने के लिए वे तैयार थे. भारत सरकार ने पूरी तरह असेम्बल्ड बोर्ड्स पर लगे 300 फीसदी आयात शुल्क की तुलना में पुर्जों पर 70 फीसदी आयात शुल्क लगा रखा था. ताकि स्थानीय स्तर पर लोगों के लिए रोजगार के अवसर मिल सकें. 20 फीसदी ज्यादा देकर कम हासिल करना, कैसा सौदा है यह? यानी बगैर असेम्बल किए, बगैर जांचे-परखे बोर्ड आर्थिक रूप से कैसे लाभप्रद हो सकते हैं? ऐसे जॉब्स को किस आधार पर उत्पादक माना जाए?
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