भारत में सामाजिक शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
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भारत की प्राचीन शिक्षा का दूसरा उद्देश्य था – बालक के नैतिक चरित्र का निर्माण करना। उस युग में भारतीय दार्शनिकों का अटल विश्वास था कि केवल लिखना-पढना ही शिक्षा नहीं है वरन नैतिक भावनाओं को विकसित करके चरित्र का निर्माण करना परम आवश्यक है। मनुस्मृति में लिखा है कि ऐसा व्यक्ति जो सद्चरित्र हो चाहे उसे वेदों का ज्ञान भले ही कम हो, उस व्यक्ति से कहीं अच्छा है जो वेदों का पंडित होते हुए भी शुद्ध जीवन व्यतीत न करता हो। अत: प्रत्येक बालक के चरित्र का निर्माण करना उस युग में आचार्य का मुख्य कर्त्तव्य समझा जाता था। इस सम्बन्ध में प्रत्येक पुस्तक के पन्नों पर सूत्र रूप में चरित्र संबंधी आदेश लिखे रहते थे तथा समय –समय पर आचार्य के द्वारा नैतिकता के आदेश भी दिये जाते थे एवं बालकों के समक्ष राम, लक्ष्मण, सीता तथा हनुमान आदि महापुरुषों के उदहारण प्रस्तुत किये जाते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि प्राचीन भारत की शिक्षा का वातावरण चरित्र-निर्माण में सहयोग प्रदान करता था।
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