भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाट्य कला पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
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भारतेन्दु के लिए साहित्य की रचना सोद्देश्यपूर्ण थी यद्यपि उन पर अपनी पूर्व की काव्य परंपरा का गहरा प्रभाव था, लेकिन गद्य लेखन, विशेषकर नाट्य लेखन में उनकी चिंताएँ आधुनिक थीं : अपने . समय और समाज से प्रेरित। वे नाट्य लेखन को सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय जागरण का माध्यम बनाना चाहते थे। वे यह भी चाहते थे कि हिंदी का साहित्य-संसार भी आधुनिक, उच्चकोटि का और समृद्ध हो। इसके लिए उन्होंने जो प्रयत्न किये, वह एक आंदोलन की तरह थे। भारतेंदु के नाटक लेखन में उनका बेधड़क, जिंदादिल व्यक्तित्व, और उनकी प्रगतिशील चेतना का असर आप देख सकते हैं। प्रेमचंद के यथार्थवाद और निराला की क्रांतिकारिता, विद्रोह और जागरण की ज़मीन भारतेंदु ने ही तैयार की थी। वह स्वयं अभिनेता, रंगकर्मी, निर्देशक और समीक्षक थे। वे सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय नवजागरण को लिए नाटक को सबसे सशक्त माध्यम मानते थे। नाटक में दृश्यात्मक और काव्यत्व को और उसके प्रत्यक्ष सौंदर्य को उन्होंने सबसे अधिक महत्व दिया जिसका प्रभाव उनके नाटकों के पूरे संरचनात्मक पक्ष पर पड़ा है। उन्होंने अपने कुछ नाटकों में अभिनय भी किया था। ‘जानकीमंगल’ नाटक जो बनारस थियेटर में खेला गया था (1868 ई0) में उन्होंने अभिनय किया।
संस्कृत नाट्य परंपरा जिसे वे प्राचीन रीति की नाट्य परंपरा के रूप में प्रस्तुत करते हैं, उसकी उपयोगिता को वे न तो पूरी तरह से अस्वीकार करते हैं और न ही वे उसके अनुकरण की बात स्वीकारते हैं। वे कहते हैं, ‘नाटकादि दृश्यकाव्य प्रणयत करना हो तो प्राचीन समस्त रीति ही परित्याग करे यह आवश्यक नहीं है क्योंकि जो सब प्राचीन रीति वा पद्धति आधुनिक सामाजिक लोगों की मतपोषिका होंगी वह सब अवश्य ग्रहण होंगी।’ भारतेंदु के इस कथन से साफ है कि वे प्राचीन नाट्य रीतियों को तब ही स्वीकार करने को तैयार है जब वे आधुनिक युग की जरूरतों के अनुरूप हों। अपनी इस बात को स्पष्ट करते हुए वे आगे लिखते हैं कि ‘नाट्यकला कौशल दिखलाने को देश, काल और पात्रगण के प्रति विशेष रूप से दृष्टि रखनी उचित है। पूर्वकाल में लोकातीत असंभव कार्य अवतारणा सभ्यगण को जैसी हृदयहारिणी होती थी वर्तमान काल में नहीं होती।’ ध्यान देने की बात है कि यहाँ भारतेंदु प्राचीन और नवीन में जिस बिंदु को विभाजक बनाते हैं, वह है यथार्थ के प्रति दृष्टिकोण। जो लोकातीत है और जो असंभव है, वर्तमान काल में वह लोगों को स्वीकार नहीं हो सकता। यह नाटकों में यथार्थ आधारित लौकिक दृष्टि के समावेश का प्रयास है। भारतेंदु अपने इस यथार्थवादी दृष्टिकोण को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ‘अब नाटकादि दृश्यकाव्य में अस्वाभाविक सामग्री परिपोषक काव्य सहृदय सभ्य मंडली को नितांत अरुचिकर है, इसलिए स्वाभाविक रचना ही इस काल के सभ्यगण की हृदय ग्राहिणी है, इससे अब अलौकिक विषय का आश्रय करके नाटकादि दृश्यकाव्य प्रणयन करना उचित नहीं है। अब नाटक में कहीं आशी, प्रभृति नाट्यालंकार कहीं प्रकरी, कहीं विलोभन, कहीं। सम्फेट, पंचसंधि, वा ऐसे ही अन्य विषयों की कोई आवश्यकता नहीं बाकी रही। संस्कृत नाटक की भाँति हिंदी नाटक में इनका अनुसंधान करना, वा किसी नाटकांग में इनको यत्नपूर्वक रखकर हिंदी नाटक लिखना व्यर्थ है, क्योंकि प्राचीन लक्षण रखकर आधुनिक नाटकादि की शोभा सम्पादन करने से उल्टा फल होता है और यत्न व्यर्थ हो जाता है।’
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