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भारत में भी साइकिल के पहियों ने आर्थिक तरक्की में अहम भूमिका निभाई। 1947 में आजादी के बाद अगले कई दशक तक देश में साइकिल यातायात व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा रही। खासतौर पर 1960 से लेकर 1990 तक भारत में ज्यादातर परिवारों के पास साइकिल थी। यह व्यक्तिगत यातायात का सबसे ताकतवर और किफायती साधन था। गांवों में किसान साप्ताहिक मंडियों तक सब्जी और दूसरी फसलों को साइकिल से ही ले जाते थे। दूध की सप्लाई गांवों से पास से कस्बाई बाजारों तक साइकिल के जरिये ही होती थी। डाक विभाग का तो पूरा तंत्र ही साइकिल के बूते चलता था। आज भी पोस्टमैन साइकिल से चिट्ठियां बांटते हैं।
जमाना बदला और कूरियर सेवाएं ज्यादा भरोसेमंद बन गईं, लेकिन साइकिल की अहमियत यहां भी खत्म नहीं हुई। बड़ी संख्या में कूरियर बाँटने वाले भी साइकिल का इस्तेमाल करते हैं। 1990 में देश में उदारीकरण की शुरुआत हुई और तेज आर्थिक बदलाव का सिलसिला शुरू हुआ। देश की युवा पीढ़ी को मोटरसाइकिल की सवारी ज्यादा भा रही थी। लाइसेंस परमिट राज में स्कूटर के लिए सालों इंतजार करने वालों का धैर्य चुक गया था। उदारीकरण के कुछ साल बाद शहरी मध्यवर्ग को अपने शौक पूरे करने के लिए पैसा खर्च करने में हिचक नहीं थी। शहरों में मोटरसाइकिल का शौक बढ़ रहा था। गांवों में भी इस मामले में बदलाव की शुरुआत हो चुकी थी। राजदूत, बुलेट और बजाज समूह के स्कूटर नए भारत में पीछे छूट रहे थे। हीरो होंडा देश की नई धड़कन बन रही थी। यह बदलाव आने वाले सालों में और तेज हुआ। देश में बदलाव के दोनों पहिये बदल गए थे। इसके बावजूद भारत में साइकिल की अहमियत खत्म नहीं हुई है। शायद यही वजह है कि चीन के बाद दुनिया में आज भी सबसे ज्यादा साइकिल भारत में बनती हैं।