भारतीय चुनावों में जाति की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
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भारत के लोकसभा चुनावों में विकास और प्रगति की बातें जरूर हुई और लोगों ने बेहतर सरकारी सेवा की चाह भी दिखाई लेकिन जातिवाद का मुद्दा अत्यंत अहम रहा है. राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए इसे हथियार बनाने से बाज नहीं आए.
लोकसभा चुनावों के लिए मतदान लगभग पूरा हो गया है. बस 12 मई को अंतिम चरण का मतदान होना बाकी है. भारतीय जनता पार्टी का शुरू से दावा था कि पूरे देश में नरेंद्र मोदी के पक्ष में हवा ही नहीं चल रही बल्कि सुनामी की याद दिलाने वाली शक्तिशाली लहर है जिसके कारण उसके नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए को कम से कम 300 सीटें तो मिल ही जाएंगी. लोकसभा के चुनावों में लहर केवल दो बार ही देखी गई है. इमरजेंसी समाप्त होने के बाद हुए चुनाव में उत्तर भारत में कांग्रेस के विरोध में लहर उठी थी. इसका असर यह हुआ कि जाति, धर्म और संप्रदाय की सीमाएं टूट गईं और कांग्रेस का उत्तर भारत से सफाया हो गया.
मतदाताओं ने उसी उम्मीदवार को वोट दिया जिसके कांग्रेस के खिलाफ जीतने की सबसे अधिक संभावना थी. नतीजा यह हुआ कि इन्दिरा गांधी और संजय गांधी भी चुनाव हार गए. दूसरी बार लहर इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में देखने को मिली. इसमें कांग्रेस के पक्ष में लहर थी. नतीजतन उसे लोकसभा में इतनी सीटें मिलीं जितनी जवाहरलाल नेहरू के जमाने में भी नहीं मिली थीं. इस बार भी लोगों ने जाति और धर्म से ऊपर उठकर कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया.
जाति की भूमिका
लेकिन सारे मीडिया हाइप के बावजूद इस बार के लोकसभा चुनाव के शुरुआती दौर में ही यह स्पष्ट हो गया कि नरेंद्र मोदी के पक्ष में हवा तो है, पर कोई तगड़ी लहर नहीं, क्योंकि जाति हर बार की तरह ही इस बार भी अपनी राजनीतिक भूमिका निभा रही है. बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह सच्चाई और भी अधिक उजागर हो रही है.
सभी अनुमानों को गलत सिद्ध करते हुए बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू यादव एक बार फिर अपने पक्ष में जातिगत समीकरण बनाने में सफल हो गए लगते हैं और उनकी पार्टी को आशा से अधिक कामयाबी मिलती दिख रही है. इसी तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश में यादव एक बार फिर समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव के पीछे गोलबंद हो रहे हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी जाटों ने अजित सिंह को नकारा नहीं है. मायावती का दलित जनाधार तो अपनी मजबूती के लिए प्रसिद्ध है ही.
आरएसएस के सपने
बीजेपी और उसके पितृ-संगठन आरएसएस का हमेशा से यह सपना रहा है कि सभी प्रकार के जातिगत, संप्रदायगत और क्षेत्रगत भेद को भुलाकर समूचा हिन्दू समाज एक शक्तिशाली संगठन के रूप में उभरे. लेकिन उन्हें इस दिशा में कोई विशेष सफलता नहीं मिल पायी है. 1990 के दशक में उसने अयोध्या आंदोलन के जरिये इस दिशा में जबर्दस्त कोशिश की थी और विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंडल का जवाब लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाल कर कमंडल से दिया था.