Hindi, asked by ashking00700, 9 months ago

भारतीय मनीषों ने जिस प्रकार संतोष करने के लिए हमें सीख दी है,
उसी तरह असंतोष करने के लिए भी कहा है। चाणक्य के अनुसार,
हमे इन तीन उपक्रमों में कभी संतोष नहीं करना चाहिए-"त्रिषु नैव
कर्तव्य: विद्याया जप दानयोः' अर्थात् विद्यार्जन में कभी संतोष नहीं
करना चाहिए कि बस, बहुत ज्ञान अर्जित कर लिया। इसी तरह जप
और दान करने में भी संतोष नहीं करना चाहिए। वैसे संतोष के
संदर्भ में तो कहा गया है-"जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि
समान।" हमें जो प्राप्त हो उसमे ही संतोष करना चाहिए-“साँई
इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय। मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा
जाए।" संतोष सबसे बड़ा धन है।
जोवन में संतोष रहा, शुद्ध-सात्विक आचरण और शुचिता का भाव
रहा, तो हमारे मन के सभी विकार दूर हो जाएंगे और हमारे अंदर
सत्य, निष्ठा, प्रेम, उदारता, दया और आत्मीयता की गंगा बहने
लगेगी। आज के मनुष्य की सांसारिकता में बढ़ती लिप्तता।, वैश्विक
बाज़ारवाद और भौतिकता की चकाचौंध के कारण संत्रास, कुंठा
और असंतोष दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। इसी असंतोष को
दूर करने के लिए संतोषी बनना आवश्यक हो गया है। सुखी और
शांतिपूर्ण जीवन के लिए संतोष सफल औषधि है।
प्रश्न
I. चाणक्य के अनुसार व्यक्ति को किन तीन उपक्रमों में संतोष
नहीं करना चाहिए?
(2)
II. उपर्युक्त गद्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि संतोष के
संदर्भ में क्या कहा गया है?
(2)
III. लेखक के अनुसार किस प्रकार मनुष्य के मन से सभी विकार
दूर हो सकते है?
(2)
IV. प्रस्तुत गद्यांश का तर्क सहित शीर्षक बताइए। (2)
V. 'प्रतिदिन' में प्रयुक्त समास का भेद बताइए। (1)​

Answers

Answered by Rahmankhan123
1

Answer:

दनवदनपषधट नोन

धोटचनःओऑधधोनधॅन ऑटषधज

Answered by aadishree7667
3

ok..........ask one by one.......

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