भारतीय साहित्य में आलेख
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देशके कई ख्याति प्राप्त साहित्यकार और इतिहासकार भी अपनी लेखनी सेपाञ्चजन्य को समृद्ध बनाते रहे हैं। इसी क्रम में भारत में दलीय प्रणाली के विकास पर 'भारत के राजनीतिक दल और हिंदुत्व' शीर्षक से एक आलेख 11 नवंबर, 1957 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इसे प्रयाग विश्वविद्यालय में राजनीति विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा था। इसमें उन्होंने दलीय प्रणाली के दोषों का उल्लेख करते हुए इन्हें जनतंत्र विरोधी बताया था। डॉ. ईश्वरी प्रसाद लिखते हैं, ‘इस प्रणाली ने मानव मस्तिष्क को दास बना दिया है और व्यक्ति को निज बुद्धि के अनुसार निर्णय करने से रोक दिया है।
दलीय मंच न तो व्याख्या करते हैं और न समझाते हैं। वे तो आकर्षण उपस्थित करते हैं और भ्रांतियों को जन्म देते हैं। दलों के कारण सत्ता कुछ लोगों के समूह के हाथों में केंद्रित हो जाती है।’ उनका लेख प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित और प्रोफेसर माइरन वीनर द्वारा लिखित पुस्तक 'पार्टी पॉलिटिक्स इन इंडिया' के संदर्भ में है। इसमें वीनर ने जनसंघ, हिन्दू महासभा, रा.स्व.संघ और राम राज्य परिषद को 'साम्प्रदायिक' बताया था, जबकि मुस्लिम लीग का जिक्र तक नहीं किया। इसकी आलोचना करते हुए डॉ. प्रसाद ने स्पष्ट किया है कि हिंदुत्व पर आस्था व्यक्त करने वाले दल साम्प्रदायिक नहीं हो सकते, क्योंकि उनके समक्ष 33 कोटि हिंदू समाज की सेवा का लक्ष्य है।
भारतवर्ष अनेक भाषाओं का विशाल देश है - उत्तर-पश्चिम में पंजाबी, हिन्दी और उर्दू; पूर्व में उड़िया, बंगाल में असमिया; मध्य-पश्चिम में मराठी और गुजराती और दक्षिण में तमिल, तेलुगु, कन्नड और मलयालम। इनके अतिरिक्त कतिपय और भी भाषाएं हैं जिनका साहित्यिक एवं भाषावैज्ञानिक महत्त्व कम नहीं है- जैसे कश्मीरी, डोगरी, सिंधी, कोंकणी, तुलू आदि। इनमें से प्रत्येक का, विशेषतः पहली बारह भाषाओं में से प्रत्येक का, अपना साहित्य है जो प्राचीनता, वैविध्य, गुण और परिमाण- सभी की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। यदि आधुनिक भारतीय भाषाओं के ही सम्पूर्ण वाङ्मय का संचयन किया जाये तो वह यूरोप के संकलित वाङ्मय से किसी भी दृष्टि से कम नहीं होगा। वैदिक संस्कृत, संस्कृत, पालि, प्राकृतों और अपभ्रंशों का समावेश कर लेने पर तो उसका अनन्त विस्तार कल्पना की सीमा को पार कर जाता है- ज्ञान का अपार भंडार, हिंद महासागर से भी गहरा, भारत के भौगोलिक विस्तार से भी व्यापक, हिमालय के शिखरों से भी ऊँचा और ब्रह्म की कल्पना से भी अधिक सूक्ष्म।
भारत की प्रत्येक भाषा के साहित्य का अपना स्वतंत्र और प्रखर वैशिष्ट्य है जो अपने प्रदेश के व्यक्तित्व से मुद्रांकित है। पंजाबी और सिंधी, इधर हिन्दी और उर्दू की प्रदेश-सीमाएं कितनी मिली हुई हैं ! किंतु उनके अपने-अपने साहित्य का वैशिष्ट्य कितना प्रखर है ! इसी प्रकार गुजराती और मराठी का जन-जीवन परस्पर ओतप्रोत है, किंतु क्या उनके बीच में किसी प्रकार की भ्रांति संभव है ! दक्षिण की भाषाओं का उद्गम एक है : सभी द्रविड़ परिवार की विभूतियां हैं, परन्तु क्या कन्नड़ और मलयालम या तमिल और तेलुगु के स्वारूप्य के विषय में शंका हो सकती है ! यही बात बांग्ला , असमिया और उड़िया के विषय में सत्य है। बंगाल के गहरे प्रभाव को पचाकर असमिया और उड़िया अपने स्वतंत्र अस्तित्व को बनाये हुए हैं।
दक्षिण में तमिल और उधर उर्दू को छोड़कर भारत की लगभग सभी भारतीय भाषाओं का जन्मकाल प्रायः समान ही है। तेलुगु साहित्य के प्राचीनतम ज्ञात कवि हैं नन्नय, जिनका समय है ईसा की ग्यारहवीं सती। कन्नड का प्रथम उपलब्ध ग्रन्थ है ‘कविराजमार्ग’, जिसके लेखक हैं राष्ट्रकूट-वंश के नरेश नृपतुंग (814-877 ई.); और मलयालम की सर्वप्रथम कृति हैं ‘रामचरितम्’ जिसके विषय में रचनाकाल और भाषा-स्वरूप आदि की अनेक समस्याएँ और जो अनुमानतः तेरहवीं शती की रचना है। गुजराती तथा मराठी का आविर्भाव-काल लगभग एक ही है। गुजराती का आदि-ग्रन्थ सन् 1185 ई. में रचित शालिभद्र सुरि का 'भारतेश्वरबाहुबलिरास’ है। मराठी के आदिम साहित्य का आविर्भाव बारहवीं शती में हुआ था। यही बात पूर्व की भाषाओं में सत्य है। बँगला की चर्यागीतों की रचना शायद दसवीं और बारहवीं शताब्दी के बीच किसी समय हुई होगी; असमिया साहित्य के सबसे प्राचीन उदाहरण प्रायः तेरहवीं शताब्दी के अंत के हैं जिनमें सर्वश्रेष्ठ हैं हेम सरस्वती की रचनाएँ ‘प्रह्लादचरित्र’ तथा ‘हरिगौरीसंवाद’। उड़िया भाषा में भी तेरहवीं शताब्दी में निश्चित रूप से व्यंग्यात्मक काव्य और लोकगीतों के दर्शन होने लगते हैं।