भारतीय संविधान की एक सीमा यह है कि इसमें लैंगिक-न्याय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। आप इस आरोप की पुष्टि में कौन-से प्रमाण देंगे। यदि आज आप संविधान लिख रहे होते, तो इस कमी को दूर करने के लिए उपाय के रूप में किन प्रावधानों की सिफारिश करते?
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इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि भारतीय संविधान में लैंगिक-न्याय पर पर्याप्त ध्यान नही दिया गया है। यद्यपि संविधान में ऐसी व्यवस्था की गयी है जिसमें किसी भी सार्वजनिक क्षेत्र में, या कानूनी मामलों में, या शिक्षा या रोजगार के क्षेत्र में किसी भी स्तर पर लैंगिक भेदभाव नही किया जायेगा। महिला या पुरुष को समान कार्य के लिये समान वेतन का प्रावधान भी निश्चित किया गया है। यद्यपि महिलाओं को पुरुष के समान स्तर पर लाने के लिये संविधान में महिलाओं के समग्र विकास के लिये अनेक प्रावाधान किये गये है, तथापि अनेक क्षेत्रों में आज भी लैंगिक भेदभाव जारी है, क्योंकि इसका कारण संविधान में लैंगिक न्याय की कोई स्पष्ट व्याख्या नही की गयी है।
यदि आज हम संविधान लिख रहे होते तो अस्थायी तौर कुछ ऐसे प्रावधान करते जिससे पुरुष और महिलाओं में समानता का स्तर कायम हो सके। कुछ क्षेत्रों में जहाँ महिलाओं का योगदान नगण्य है और पुरुषों का वर्चस्व है वहाँ महिलाओं को आगे लाने के लिये कुछ विशेष छूट दी जाती। जहाँ पर पुरुषों का वर्चस्व नही है, महिलाओं का वर्चस्व है, वहाँ पुरुषों को आगे आने के लिये प्रेरित किया जाता। समाज के हर क्षेत्र में लैंगिक स्तर पर दोनों पक्षों की समान भागीदारी हो, ऐसे प्रावधान अस्थायी रूप से एक सीमित समय तक अवश्य करते, जब तक कि वांछित उद्देश्य की प्राप्ति नही हो जाती। लैंगिक समानता का लक्ष्य प्राप्त हो जाने पर विशेष छूट के प्रावधान समाप्त कर दिये जाते क्योंकि ऐसी तब उनका कोई औचित्य नही रह जाता और दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाती।