Hindi, asked by vinod8130341048iron, 7 hours ago

भाषा और बोली में अंतर बताते हुए 10 प्रकार की बोली तथा किसी राज्य में बोली जाती है तालिका बनाओ ​

Answers

Answered by bsriveera
1

Answer:

बोली का क्षेत्र सीमित होता है जबकि भाषा का क्षेत्र विस्तृत होता है। बोली का कोई व्याकरण नहीं होता जबकि भाषा का व्याकरण होता है। भाषा का शब्दकोश होता है जबकि बोली का कोई शब्दकोश नहीं होता है। किसी भी भाषा में पर्याप्त साहित्यिक रचना उपलब्ध होती है जबकि बोली में साहित्यिक रचना नहीं के बराबर होती हैं।

Answered by Radhaisback2434
0

Explanation:

1).भाषा की लिपि होती है पर बोली की नहीं - यह तर्क सर्वाधिक कमजोर है अतः इसके खंडन से प्रारम्भ करते हैं. देखिये इस तर्क के अनुसार तो विश्व की अधिकाँश भाषाएँ भी बोली की श्रेणी में आ जाती हैं, यथा हिंदी की अपनी कोई लिपि नहीं है, वस्तुतः यह संस्कृत की लिपि है, जिसे हिंदी में उपयोग किया जाता है. यही बात मराठी (देवनागरी) , कश्मीरी ( देवनागरी व अरबी) , उर्दू ( देवनागरी व अरबी), सिंधी (अरबी व देवनागरी), मैथली ( देवनागरी), नेपाली( देवनागरी) इत्यादि के लिए 100 फीसद सत्य है. लिपि वाले तर्क से ये सभी भाषाएँ समस्त यूरोपियन भाषाओँ समेत (सिवाय लेटिन के) अपना भाषा का दर्जा खो देती हैं. अतः इस तर्क का खंडन करना ही एकमात्र मार्ग रह जाता है.

2).भाषा का व्याकरण होता है बोली का नहीं - यह दूसरी कमजोर कड़ी है. उदहारण से समझते हैं- "तुम कहाँ जा रहे हो?" वाक्य पर विचार करते हैं- यह हिंदी "भाषा" का वाक्य है, प्रश्नवाचक है, वर्तमान काल में है. इसी वाक्य को गढ़वाली "बोली" में देखते हैं- "क:ख छिन हीटेणा?" या "कक्ख छा जाणा" यह वाक्य गढ़वाली में प्रश्नवाचक है, वर्तमान काल में है यानि व्याकरण के सभी नियमों के अंतर्गत ही है. सवाल यह है कि बिना व्याकरण के क्या मौखिक संकेत, भाषा या बोली बन सकते हैं? तो इस तर्क का भी स्वतः खंडन हो जाता है.

3).भाषा विस्तृत है बोली सीमित - इस तर्क से तो यूरोप की कई भाषाएँ अपना दर्जा खो देंगी क्योंकि इनका क्षेत्रीय विस्तार जि्ला उत्तरकाशी से कम और बोलने वाले हमारे जिला पौड़ी के वासियों से भी कम हैं. अतः यह मानक भी अमान्य होता है.

कोस कोस में बोली बदलती है, भाषा नहीं - अकेले ब्रिटेन में ही अंग्रेजी के स्वरुप में हर कोस में बदलाव हो जाता है. हिंदी दिल्ली से चल कर मेरठ में अपना स्वरुप बदल देती है. कश्मीरी, पंडितों और मुस्लिमों में ही अलग हो जाती है. पंजाबी सराईकी तक पहुंचते-पहुंचते परग्रही भाषा का रूप ले लेती है. इस तर्क से तो विश्व में सिवाय संस्कृत और लेटिन के भाषाएँ ही नहीं बचेंगी। अतः इस तर्क से भी छुटकारा पाना उचित रहेगा।

4).भाषा नियमों की मोहताज होती है बोली नहीं - यह तर्क जी ने दिया है। विनम्रता के साथ मैं इस पर अपना पक्ष रखना चाहूंगा। निश्चित ही भाषा नियमों की मोहताज होती है लेकिन बोली भी बिना नियमों ( लिखित-अलिखित) के अस्तित्व में नहीं रह सकती। यथा प्राकृतिक नियम कि अक्षरों के ध्वनि उच्चारण के बीच समयांतर उचित होना चाहिए, अन्यथा शब्द कभी आकार ही नहीं ले सकता है. जैसे कि अगर मै आज एक उच्चारण करूँ "आ" और दूसरा उच्चारण "म" ४ घंटे बाद करूँ तो कभी "आम" शब्द बन ही नहीं सकता। अतः बोली और भाषा दोनों ही नियमों से बंधीं हैं तभी ये संचार का माध्यम हैं.

5).अंत में समस्या दर्जे की नहीं नहीं रह जाती, समस्या होती है संरक्षण में होने वाले भेदभाव से. जैसे कि जब हिंदी अपने वर्तमान रूप में आकार नहीं ले पायी थी, गढ़वाली भाषा गढ़वाल राज्य की राजभाषा थी और अपने वर्तमान स्वरूप में करीब करीब 1000 साल राजश्री को प्राप्त रही. इसकी समकालीन भाषाएँ कश्मीरी और नेपाली आज राजभाषा का दर्जा प्राप्त हैं लेकिन हमारी भाषा हिंदी की बलिवेदी पर विवश पड़ी तड़फ रही है. अगर सरकारें बोली के संरक्षण में भी समानता दिखाती हैं तो ये चर्चा ही समाप्त हो जाती है।

बोली का क्षेत्र सीमित होता है जबकि भाषा का क्षेत्र विस्तृत होता है। बोली का कोई व्याकरण नहीं होता जबकि भाषा का व्याकरण होता है। भाषा का शब्दकोश होता है जबकि बोली का कोई शब्दकोश नहीं होता है। किसी भी भाषा में पर्याप्त साहित्यिक रचना उपलब्ध होती है जबकि बोली में साहित्यिक रचना नहीं के बराबर होती हैं।

Similar questions