Hindi, asked by AdrijaNaskar, 8 days ago

भावार्थ- माई पकाई गरर-गरर पूआ, हम खाइब पूआ, ना खेलब जुआ |​

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Answered by ayush45858
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तमाशे भी ऐसे-वैसे नहीं, तरह-तरह के नाटक! चबूतरे का एक कोना ही नाटक घर बनता था । बाबू जी जिस छोटी चौकी पर बैठकर नहाते थे, वही रंगमंच बनती। उसी पर सरकंडे के खंभों पर कागज़ का चँदोआ (छोटा शमियाना) तानकर, मिठाइयों की दुकान लगाई जाती। उसमें चिलम के खोंचे पर कपड़े के थालों में ढेले के लड्डू, पत्तों की पूरी - कचौरियाँ, गीली मिट्टी की जलेबियाँ, फूटे घड़े के टुकड़ों के बताशे आदि मिठाइयाँ सजाई जातीं। ठीकरों के बटखरे और जस्ते के छोटे-छोटे टुकड़ों के पैसे बनते। हमीं लोग खरीदकर और हमीं लोग दुकानदार बाबू जी भी दो-चार गोरखपुरिए पैसे खरीद लेते थे।

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