भाव स्पष्ट कीजिए :
लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।
बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।
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लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे देव! सुनिए, हमारे जान में तो सभी धनुष एक से ही हैं। पुराने धनुष के तोड़ने में क्या हानि-लाभ! श्री रामचन्द्रजी ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था , फिर यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी का भी कोई दोष नहीं है। मुनि! आप बिना ही कारण किसलिए क्रोध करते हैं? परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले- अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना
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भाव स्पष्ट कीजिए :
लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।
बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।
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