भक्ताः कीदृशम् सुखम् अनुभवन्ति
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वृक्षा: भू अन्ति। आः में मनुष्य इव भुक्त्वा प्रीत्वा च जीवन्ति मूलाने वृक्षारां मुखानि भवन्ति ते पाद: जलं पिबन्ति अत एव पादपाः कथ्यन्ते तेषां मूलानि भूमितः रसं गृहीत्वा सर्वेषु अवयवेषु नयन्ति, तेन ते प्रवर्धन्तेः पुष्पन्ति, फलन्ति। वृक्षाः अपि वर्षा शीतातपैः प्रभाविताः भवन्ति। तेऽपि सुखानि दुःखानि च अनुभवन्ति। तेषु अपि प्राणाः भवन्ति, अतएव ते प्राणिनः इव जायन्ते, वर्धन्ते, पुष्पन्ति, फलन्ति, म्रियन्ते च। ते कदापि खगमृगजलचरनराः इव न विचरन्ति अतः अचराः कथ्यन्ते। बहूपकुर्वन्ति वृक्षाः प्राणिनाम्। वृक्षाः अशरणानां शरणम्, बुभुक्षितानां भोजनम्, संतप्तानां समाश्रयाः वृष्टिकारकाः सन्ति। वृक्षारोपणं वृक्षरक्षणं च अस्माकं रक्षायै परमावश्यकम्।
हिन्दी अनुवाद-वृक्ष भूमि में उत्पन्न होते हैं। वृक्ष भी मनुष्य के समान खाकर और पीकर जीवित रहते हैं। मूल (जड़े) वृक्षों के मुख होते हैं। वे पैरों से जल पीते हैं, इसीलिए पादपाः’ कहे जाते हैं। उनकी जड़े भूमि से रस ग्रहण करके सभी अवयवों में ले जाती हैं, उससे वे बढ़ते हैं, फूल देते हैं और फल देते हैं। वृक्ष भी। वर्षा, सद, गर्मी से प्रभावित होते हैं। वे भी सुख और दुःख का अनुभव करते हैं। उनमें भी प्राण होते हैं, इसीलिए वे प्राणियों के समान उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं, फूलते हैं, फलते हैं और मरते हैं। वे कभी भी पक्षी, पशु, जलचर और मनुष्यों के समान विचरण नहीं करते हैं, इसलिए अचर’ कहे जाते हैं वृक्ष प्राणियों को बहुत उपकार करते हैं। वृक्ष अशरणों के शरणदाता, भूखों का भोजन, संतप्तों के आश्रय तथा वर्षा करने वाले हैं। हमारी रक्षा के लिए वृक्षारोपण और वृक्षों की रक्षा करना परम आवश्यक है
भक्ताः कीदृशम् सुखम् अनुभवन्ति? ?