Music, asked by nzmmsmsms, 1 year ago

"भरत मुनि कृत नाट्य शास्त्र" के बारे में बताइए ।

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Answered by Anonymous
12
कवयित्री, नाट्यविद, संगीत-विदुषी वंदना शुक्ल हमेशा कला-साहित्य के अनछुए पहलुओं को लेकर बहुत गहराई से विश्लेषण करती हैं. जिसका बहुत अच्छा उदाहरण है यह लेख- जानकी पुल.

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अभिनय का विस्तृत विवेचन करने वाला विश्व का सबसे प्रथम ग्रन्थ आचार्य भरत मुनि कृत ‘’नाट्य शास्त्र’’ है| भरतमुनि का नाट्यशास्त्र ऐसा ग्रन्थ है कि वह शिल्प के नियमों और पद्धतियों का ‘विश्वकोश ‘’बन हमारे समक्ष आता है| नाट्यशास्त्र के उद्गम और विकास का इतिहास बड़ा रोचक रहा है| शास्त्र में लिखा गया है कि‘ ‘जब त्रेता युग का प्रारंभ हुआ,उस समय मनुष्यों में क्रोध दुःख ईर्षा द्वेष आदि का समावेश हो गया था मानव समाज पीड़ित रहने लगा तब  देवराज इन्द्र ने ब्रम्हा जी के समक्ष याचना की –मनोरंजन से युक्त कोई क्रीडा युक्त ऐसा साधन बताइए जिसमे देखने और सुनने के गुण सन्निहित हों! इन्द्र ने यह भी प्रार्थना की कि वह साधन समाज के समस्त वर्गों के हित के लिए उपियुक्त होना चाहिए| तब  ब्रम्हा जी ने चार वेदों का स्मरण किया ,और ऋग्वेद से पाठ्य,सामवेद से गान,यजुर्वेद से अभिनय,और अथर्व वेद से रस का चयन कर पंचम वेद के रूप में नाट्य शास्त्र की स्रष्टि की !ब्रम्हा जी ने इसे ‘’भरत मुनि तथा उनके पुत्रों को सौंप दिया और इस नाट्य कला का प्रचार करने के लिए कहा |’

भरत मुनि ने नाट्यवेद के अंतर्गत बारह हज़ार श्लोकों कि रचना की |नाट्यशास्त्र के आठवें अद्ध्याय में अभिनय शब्द के निर्माण और स्वरुप का विस्तृत वर्णन किया गया है !

भरत मुनि ने अभिनय के प्रमुख रूप से चार भेद बताये हैं !वे हैं (१)-आंगिक-(२)-वाचिक (३)-आहार्य (४)-सात्विक !आजकल ‘’अभिनय’’ का अर्थ ‘’एक्टिंग’’ से लिया जाता है !परन्तु ‘नाट्यशास्त्र’’में अभिनय का अर्थ‘’एक्टिंग’’ न होकर कुछ अलग है !वस्तुतः नाट्यशास्त्र में ‘’अभिनय’’ शब्द का अर्थ बहुत व्यापक और वृहद है !आजकल अभिनय नाटक का एक अंग मात्र होता है,किन्तु नाट्य शास्त्र में नाट्य नामक  तत्व ,अभिनय का एक अंग हुआ करता था !’’अभिनय’’ के अंतर्गत गायन,वादन,नर्तन,मंच शिल्प,काव्य,आध्यात्म,दर्शन,योग,मनोविज्ञान,प्रकृति आदि अनेक विषयों को समाहित किया गया है !

(१)-आंगिक अभिनय-

तत्र आन्गिको अन्गैनिदअर्शितः ‘’अर्थात यह विभिन्न अंगों द्वारा निदर्शित किया जाता है इसलिए इसे आंगिक कहा जाता है |अंगों का विभाजन शास्त्र में अंग,प्रत्यंग और उपांग के रूप में किया गया है !नाट्यशास्त्र में कहाँ मुखज,कहाँ चेष्टा कृत,का प्रयोग किया जाना है इसका विधिवत वर्णन है !अंगिकतीन प्रकार के बताये गए हैं (१)-मुखज -(२)-शारीरिक (३)चेष्टा ! द्रष्टि के २० भेदों का और वर्णन मिलता है!छः अंग हैं –सिर,हाथ,कटी,वक्ष,पाद,|मुखज में नेत्र,भ्रकुटी,नासिका,अधर,कपाल,चिबुक इन्हें उपांग कहा गया |सिर की मुद्राएँ ८ प्रकार की होती हैं !द्रष्टि के आठ भेद- ,भयानक स्मिता ,अद्भुत,रौद्र,वीर वीभत्स आदि !अष्ट नायिकाओं के रूप में स्त्रियों कि विभिन्न भाव भंगिमाओं के के सम्बन्ध में दीर्घ निर्देश दिए गए हैं|विभिन्न रसों में उनके प्रयोगों की विधियों को विस्तृत रूप से स्पष्ट किया गया है |

Answered by Anonymous
19
✌️✌️ hey mate,

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कवयित्री, नाट्यविद, संगीत-विदुषी वंदना शुक्ल हमेशा कला-साहित्य के अनछुए पहलुओं को लेकर बहुत गहराई से विश्लेषण करती हैं.
जिसका बहुत अच्छा उदाहरण है यह लेख- जानकी पुल.

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अभिनय का विस्तृत विवेचन करने वाला विश्व का सबसे प्रथम ग्रन्थ आचार्य भरत मुनि कृत ‘’नाट्य शास्त्र’’ है| भरतमुनि का नाट्यशास्त्र ऐसा ग्रन्थ है कि वह शिल्प के नियमों और पद्धतियों का ‘विश्वकोश ‘’बन हमारे समक्ष आता है| नाट्यशास्त्र के उद्गम और विकास का इतिहास बड़ा रोचक रहा है| शास्त्र में लिखा गया है कि‘ ‘जब त्रेता युग का प्रारंभ हुआ,उस समय मनुष्यों में क्रोध दुःख ईर्षा द्वेष आदि का समावेश हो गया था मानव समाज पीड़ित रहने लगा तब  देवराज इन्द्र ने ब्रम्हा जी के समक्ष याचना की –मनोरंजन से युक्त कोई क्रीडा युक्त ऐसा साधन बताइए जिसमे देखने और सुनने के गुण सन्निहित हों! इन्द्र ने यह भी प्रार्थना की कि वह साधन समाज के समस्त वर्गों के हित के लिए उपियुक्त होना चाहिए| तब  ब्रम्हा जी ने चार वेदों का स्मरण किया ,और ऋग्वेद से पाठ्य,सामवेद से गान,यजुर्वेद से अभिनय,और अथर्व वेद से रस का चयन कर पंचम वेद के रूप में नाट्य शास्त्र की स्रष्टि की !ब्रम्हा जी ने इसे ‘’भरत मुनि तथा उनके पुत्रों को सौंप दिया और इस नाट्य कला का प्रचार करने के लिए कहा |’

भरत मुनि ने नाट्यवेद के अंतर्गत बारह हज़ार श्लोकों कि रचना की |नाट्यशास्त्र के आठवें अद्ध्याय में अभिनय शब्द के निर्माण और स्वरुप का विस्तृत वर्णन किया गया है !

भरत मुनि ने अभिनय के प्रमुख रूप से चार भेद बताये हैं !वे हैं
(१)-आंगिक-
(२)-वाचिक
(३)-आहार्य (४)-सात्विक !आजकल ‘’अभिनय’’ का अर्थ ‘’एक्टिंग’’ से लिया जाता है !परन्तु ‘नाट्यशास्त्र’’में अभिनय का अर्थ‘’एक्टिंग’’ न होकर कुछ अलग है !वस्तुतः नाट्यशास्त्र में ‘’अभिनय’’ शब्द का अर्थ बहुत व्यापक और वृहद है !आजकल अभिनय नाटक का एक अंग मात्र होता है,किन्तु नाट्य शास्त्र में नाट्य नामक  तत्व ,अभिनय का एक अंग हुआ करता था !’’अभिनय’’ के अंतर्गत गायन,वादन,नर्तन,मंच शिल्प,काव्य,आध्यात्म,दर्शन,योग,मनोविज्ञान,प्रकृति आदि अनेक विषयों को समाहित किया गया है !

(१)-आंगिक अभिनय-

तत्र आन्गिको अन्गैनिदअर्शितः ‘’अर्थात यह विभिन्न अंगों द्वारा निदर्शित किया जाता है इसलिए इसे आंगिक कहा जाता है |अंगों का विभाजन शास्त्र में अंग,प्रत्यंग और उपांग के रूप में किया गया है !नाट्यशास्त्र में कहाँ मुखज,कहाँ चेष्टा कृत,का प्रयोग किया जाना है इसका विधिवत वर्णन है !अंगिकतीन प्रकार के बताये गए हैं
(१)-मुखज -
(२)-शारीरिक
(३)चेष्टा !
द्रष्टि के २० भेदों का और वर्णन मिलता है!छः अंग हैं –सिर,हाथ,कटी,वक्ष,पाद,| मुखज में नेत्र,भ्रकुटी,नासिका,अधर,कपाल,चिबुक इन्हें उपांग कहा गया | सिर की मुद्राएँ ८ प्रकार की होती हैं !द्रष्टि के आठ भेद- ,भयानक स्मिता ,अद्भुत,रौद्र,वीर वीभत्स आदि !अष्ट नायिकाओं के रूप में स्त्रियों कि विभिन्न भाव भंगिमाओं के के सम्बन्ध में दीर्घ निर्देश दिए गए हैं|विभिन्न रसों में उनके प्रयोगों की विधियों को विस्तृत रूप से स्पष्ट किया गया है |


thanks....
nice to help you ✌️✌️
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