Bhartiya Sanskriti aur Badalta pparivesh essay in hindi
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पृथ्वी पर व्याप्त पर्यावरण प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ वरदान है। मनुष्य इसी पर्यावरण की सर्वोत्कृष्ट कृति है। प्रकृति और मनुष्य परस्पर पूरक हैं। मनुष्य जैसे प्राकृतिक परिवेश में रहता है, उसका व्यवहार, रहन-सहन, वेशभूषा, खानपान, भाषा इत्यादि उसी के अनुसार विकसित होती है। यथा- गर्म प्रदेश में रहने वाले मनुष्य सूती वस्त्र पहनते हैं, ये वस्त्र कपास से बनते हैं और कपास की खेती योग्य भूमि गर्म प्रांतों में पाई जाती है। इसी प्रकार ठण्डे प्रदेशों के लोग ऊनी वस्त्र पहनते हैं। यह ऊन ठण्डे जलवायु के जानवरों (याक, भेंड़) के बालों से बनती है। तात्पर्य यह है कि किसी भी देश की संस्कृति उसके पर्यावरण पर निर्भर करती है। यदि पंजाब प्रांत में लोग गेहूँ अधिक खाते हैं तो उसका स्पष्ट कारण है कि वहाँ की भूमि गेहूँ की खेती के लिये सर्वथा उपयुक्त है। इसी प्रकार बंगाल में चावल की उपज अधिक होने के कारण बंगाली लोग चावल अधिक खाते हैं। यदि भाषा का व्याकरणिक अध्ययन किया जाए तो भाषा भूगोल के अनुसार अलग-अलग जलवायु के लोगों की भाषा भी भिन्न-भिन्न होती है।
हमारी भारतीय संस्कृति इन तथ्यों से भली भाँति अवगत है। इसीलिये हमारी संस्कृति में प्राकृतिक शक्तियों को देवी-देवताओं का स्थान प्राप्त था और इनकी पूजा की जाती थी। मिट्टी को मातृ देवी, वायु को देवता और जल को पवित्र देवी, अग्नि को देवता कहा जाता था। भारतीय लोग संस्कृति तो पूर्णत: प्रकृति परक है। यहाँ का ग्राम्य जीवन प्रकृति से अत्यधिक प्रेम करता है। भारत गाँवों का देश है और भारतीय संस्कृति कृषक संस्कृति कहलाती है। यहाँ के किसान अपनी धरती से अत्यधिक लगाव रखते हैं। यहाँ की उपजाऊ भूमि में मौसम के अनुसार फसलें, फलों के वृक्ष, पुष्प आदि उगाए जाते हैं। अर्थात खेती पूर्णत: प्रकृति पर निर्भर है। यहाँ ऋतु गीत गाये जाते हैं। रोग ग्रस्त होने पर पेड़, पौधों, वनस्पतियों से भाँति-भाँति की औषधियाँ प्रयोग में लायी जाती हैं। जैसे- खाँसी आने पर तुलसी दल का काढ़ा, चोट लगने पर हल्दी का लेप, चेचक होने पर नीम की पत्ती का रखना, दुग्ध पान कराने वाली माताओं को पीपर, सतावर खिलाना आदि।