चिट्ठी में बंद यादें पर निबंध
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चिट्ठी में बंद यादें
" इत्र में तो कभी प्रेम में डूबा वो
अपनेपन का सहारा हुआ करता था
चिट्ठियों का वो दौर महज़
कागज़ का नहीं,
यादों का पिटारा हुआ करता था•••! ''
उस दौर की बात ही अलग थी जब डाकिया चिट्ठी लेकर आता था और पूरे घर में खुशी का माहौल हो जाता था । प्रेमपूर्वक लिखे गए पत्र को लोग वर्षों तक संभाल कर रखते थे । मानो उस लिफाफ़े में खत नहीं, उनकी बंद यादें हों । कुछ खट्टी मीठी यादें, जिन्हें वह कभी खोना नहीं चाहते ।
यही नहीं, डाकिया को एक दूत की नज़र से देखा जाता था।
जब भी वह किसी राह में चिट्ठी लाता दिखाई देता तो चेहरा ऐसे खिल उठता मानो पतझङ में हरियाली छा गई हो। जब वह स्वयं के घर न आकर पङोस मे। चिट्ठी देने जाता तो ऐसा प्रतीत होता मानो किसी बच्चे से खिलौना छीन लिया गया हो ।
लोग जब खत लिखते थे तो उनके विचार किस प्रकार के होते थे, यह गुलज़ार जी ने व्यक्त किया है -
'' चिट्ठी दिल की भेज रहा हूं ,
चाहत अरमानों के मेरे मोङकर,
चिट्ठी नहीं, ये है टुकङा दिल का मेरे,
बस जवाब देना, सारा काम छोड़कर । ''
जब लोग अपने परिवार से दूर रहकर काम करते थे, तो उनकी खबर पूछने के लिए चिट्ठी लिखते थे । अपनी बीमारी या किसी संकट की घड़ी में लोग अपने प्रियजनों को खत लिखकर ही उसकी सूचना देते थे ।
चिट्ठी चेहरे पर सदैव मुस्कान ही नहीं लाती अपितु कभी कभी यह आँखों को नम भी कर देती है।
इतिहास में कई किताबें खतों से मिली जानकारी पर ही लिखी गई थी। कुछ लोगों का कहना था कि - खत लिखना भी एक कला है। खत में सही वर्तनी, विराम चिह्न और लिखावट का विशेष ध्यान रखना चाहिए । महात्मा गांधी ने भी जेल में रहकर कई चिट्ठियां लिखीं । गोपाल दास नीरज ने कहा है - '' लिखना चाहूं भी तुझे खत तो बता कैसे लिखूं ? ज्ञात मुझको तो तेरा ठौर - ठिकाना भी नहीं । '' इस आधुनिक युग में खत की कोई जगह नहीं बची । टेलीफोन व स्मार्ट फोन के आते ही चिट्ठी की अनोखी दुनिया को लोगों ने अलविदा कह दिया । परंतु आज भी राजनीति में साहित्य पत्र पीछे नहीं है ।
" क्या गज़ब का दौर है मेरे दोस्त ! पहले लोग दोस्तों के खत का हफ्तों से इंतज़ार करते थे , अब संदेश तो कुछ सेकेंड में पहुंच जाता है , परंतु उसका जवाब हफ्तों में आता है । ''
दुनिया का सबसे पुराना पत्र सुमेर का है । यह मिट्टी की पटरी पर लिखा गया था । सन 1969 में जापान की राजधानी तोक्यो में हुए यूनियन के सम्मेलन में 9 अक्टूबर का दिन विश्व डाक दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा की गई थी ।
वो इंतज़ार की कोशिश
उंगलियों का फिराना
लबों से चूमना खुश्बू से तर हो जाना
वो सबसे छुपा छुपा के
लफ़्जों के जादू में खो जाना
याद आ रहा है आज फिर
वो चिट्ठियों का जमाना••••!
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उस दिन पुरानी आलमारी की सफाई कर रही थी। उसमें जाने कितने वर्षों पुराना अटाला भरा था। एक गट्ठर वहाँ रखा था। खोला तो पुरानी चिट्ठियों का बँधा ढेर था। हर चिट्ठी के साथ एक स्मृति और उसका इतिहास जुड़ा था। अम्मा के खत, अब्बा के लम्बे कई-कई पन्नों वाले पत्र और भी जाने कितने मित्रों के, पाठकों के पत्र थे। याने खत ही खत मेरे सामने थे। लिखने वालों में अब अधिकांश इस संसार में जीवित नहीं थे, पर उन चिट्ठियों में उस व्यक्ति की अपनी छवि, आब और वजूद वैसा ही बरकरार था। पोस्टकार्ड पर, लिफ़ाफ़ों पर उस समय की तारीखें और सन के साथ डाकघर की मोहर मौजूद थी। पोस्टकार्ड केवल अम्मा के थे। वह अपने खत पोस्टकार्ड पर ही लिखवाती थीं। आज भी किसी का पोस्टकार्ड पर लिखा खत आया है, तो एकदम से अम्मा की याद की फुरेरी कौंध जाती हैं। कितनी ढेर-ढेर स्मृतियों ने एक साथ आकर मुझे घेर लिया। स्मृतियों के हो-हल्ले और शोर ने मुझे बीते दिनों में पहुँचा दिया। हर स्मृति की अपनी अलग-अलग महक थी। जैसे किसी पुराने इत्रदान में रखे फोहा की महक। इत्र खत्म हो गया पर उसकी खुशबू उसमें अभी भी बसी थी। अब्बा के लम्बे पत्रों में दुनिया की, समाज की बातें और अन्त में नन्हा-सा एक आश्वासन, जो हमेशा मेरे काँपते कमज़ोर पैरों को ताकत देता था।