Can any one give me the summary (meaning) of the poem "Mein neer bhari dukh ki badali" written by Mahadevi Verma? Please give it as soon as possible. Thanks in advance........
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मैं नीर भरी दु:ख की बदली!
स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
क्रन्दन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली।
मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिन्ता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना
पथ-चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
@@@@@@@@@@@@#@@#@@##@#@#@
यह कविता महादेवी वर्मा की कविता हैं जिसका अर्थ यह है कि एक लड़की माटी की गुड़िया के समान है जिसे अपनी जिंदगी के हर मोड़ पर टूटने और बिखरने का डर है. उसकी जिंदगी में परेशानियों का सफर हमेशा चलता रहता है. लड़की के पैदा होने पर परिवार दुखित होता है और यदि पहले ही पता चल जाए कि गर्भ में लड़की है तो उसे गर्भ में ही मार दिया जाता है. कुछ बड़ी हुई तो बाल-विवाह का डर, वो भी नहीं हुई तो गिद्ध की तरह हर वक्त घूरती नजरों का खौफ.
यदि लड़की पढ़ने-लिखने गई तो अवसरों का डर क्योंकि यदि अवसर मिल गए तो उसे ‘कीमत’ चुकाने का डर. शादी के लिए दहेज का डर और यदि गलती से ससुराल की इच्छा के अनुसार माता-पिता ने कम दहेज दे दिया तो ससुराल की प्रताड़ना का डर. यदि औरत के जीवन में पति न रहा तो समाज का डर. कुछ इसी तरह एक लड़की की जिंदगी तमाम परेशानियों के साथ चलती रहती है.
महादेवी वर्मा की कविताओं में एक गंभीरता होती थी जिसे पढ़ने पर एक रस का अनुभव तो होता ही था पर साथ ही समाज को एक नए चश्मे से देखने का अनुभव भी होता था.
महादेवी वर्मा ने जिस परिवार में जन्म लिया था उसमें कई पीढ़ियों से किसी कन्या का जन्म नहीं हुआ था इसलिए परिवार में महादेवी की हर बात को माना जाता था. महादेवी का विवाह अल्पायु में ही कर दिया गया, पर वह विवाह के इस बंधन को जीवनभर स्वीकार न कर सकीं.।।
thanks;)
स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
क्रन्दन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली।
मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिन्ता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना
पथ-चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
@@@@@@@@@@@@#@@#@@##@#@#@
यह कविता महादेवी वर्मा की कविता हैं जिसका अर्थ यह है कि एक लड़की माटी की गुड़िया के समान है जिसे अपनी जिंदगी के हर मोड़ पर टूटने और बिखरने का डर है. उसकी जिंदगी में परेशानियों का सफर हमेशा चलता रहता है. लड़की के पैदा होने पर परिवार दुखित होता है और यदि पहले ही पता चल जाए कि गर्भ में लड़की है तो उसे गर्भ में ही मार दिया जाता है. कुछ बड़ी हुई तो बाल-विवाह का डर, वो भी नहीं हुई तो गिद्ध की तरह हर वक्त घूरती नजरों का खौफ.
यदि लड़की पढ़ने-लिखने गई तो अवसरों का डर क्योंकि यदि अवसर मिल गए तो उसे ‘कीमत’ चुकाने का डर. शादी के लिए दहेज का डर और यदि गलती से ससुराल की इच्छा के अनुसार माता-पिता ने कम दहेज दे दिया तो ससुराल की प्रताड़ना का डर. यदि औरत के जीवन में पति न रहा तो समाज का डर. कुछ इसी तरह एक लड़की की जिंदगी तमाम परेशानियों के साथ चलती रहती है.
महादेवी वर्मा की कविताओं में एक गंभीरता होती थी जिसे पढ़ने पर एक रस का अनुभव तो होता ही था पर साथ ही समाज को एक नए चश्मे से देखने का अनुभव भी होता था.
महादेवी वर्मा ने जिस परिवार में जन्म लिया था उसमें कई पीढ़ियों से किसी कन्या का जन्म नहीं हुआ था इसलिए परिवार में महादेवी की हर बात को माना जाता था. महादेवी का विवाह अल्पायु में ही कर दिया गया, पर वह विवाह के इस बंधन को जीवनभर स्वीकार न कर सकीं.।।
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मैं नीर भरी दु:ख की बदली!
स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
क्रन्दन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली।
मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिन्ता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना
पथ-चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
thanks;)
स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
क्रन्दन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली।
मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिन्ता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना
पथ-चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
thanks;)
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