can anyone provide me the brief summary of tum kab jaoge atithi ?
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Explanation:
लेखक अपने घर में आए अतिथि को अपने मन में संबोधित करते हुए कहता है कि आज अतिथि को लेखक के घर में आए हुए चार दिन हो गए हैं और लेखक के मन में यह प्रश्न बार-बार आ रहा है कि 'तुम कब जाओगे, अतिथि? लेखक अपने मन में अतिथि को कहता है कि वह जहाँ बैठे बिना संकोच के सिगरेट का धुआँ उड़ा रहा है, उसके ठीक सामने एक कैलेंडर है। लेखक कहता है कि पिछले दो दिनों से वह अतिथि को कलैंडर दिखाकर तारीखें बदल रहा है। ऐसा लेखक ने इसलिए कहा है क्योंकि लेखक अतिथि की सेवा करके थक गया है। पर चौथे दिन भी अतिथि के जाने की कोई संभावना नहीं लग रही थी। लेखक अपने मन में अतिथि को कहता है कि अब तुम लौट जाओ, अतिथि! तुम्हारे जाने के लिए यह उच्च समय अर्थात हाईटाइम बिल्कुल सही वक्त है। क्या उसे उसकी मातृभूमि नहीं पुकारती? अर्थात क्या उसे उसके घर की याद नहीं आती। लेखक अपने मन में ही अतिथि से कहता है कि उस दिन जब वह आया था तो लेखक का हृदय ना जाने किसी अनजान डर के (किसी अन्जान डर से )धड़क उठा था। अंदर-ही-अंदर कहीं लेखक का बटुआ काँप गया। उसके बावजूद एक प्यार से भीगी हुई मुस्कराहट के साथ लेखक ने अतिथि को गले लगाया था और मेरी लेखक की पत्नी ने अतिथि को सादर नमस्ते की थी। अतिथि को याद होगा कि दो सब्ज़ियों और रायते के अलावा उन्होंने मीठा भी बनाया था। इस सारे उत्साह और लगन के मूल में लेखक को एक उम्मीद थी। यह उम्मीद थी कि दूसरे दिन किसी रेल से एक शानदार अतिथि सत्कार की छाप अपने हृदय में ले कर अतिथि चला जायेगा। पर ऐसा नहीं हुआ! दूसरे दिन भी अतिथि मुस्कान बनाए लेखक के घर में ही बने रहे। लेखक अपने मन में ही अतिथि से कहता है कि उन्होंने अपने दुःख को पी लिया और प्रसन्न बने रहे। लेखक ने फिर दोपहर के भोजन को लंच की गरिमा प्रदान की और रात्रि को अतिथि को सिनेमा दिखाया। लेखक के सत्कार का यह आखिरी छोर था, जिससे आगे लेखक कभी किसी के लिए नहीं बढे़। इसके तुरंत बाद लेखक को अनुमान था कि विदाई का वह प्रेम से ओत-प्रोत भीगा हुआ क्षण आ जाना चाहिए था, जब अतिथि विदा होता और लेखक उसे स्टेशन तक छोड़ने जाता। पर अतिथि ने ऐसा नहीं किया। वह लेखक के घर पर ही रहा।लेखक अपने मन में ही अतिथि से कहता है कि तीसरे दिन की सुबह अतिथि ने लेखक से कहा कि वह धोबी को कपड़े देना चाहता है। लेखक अतिथि से कहता है कि कपड़ों को किसी लॉण्ड्री में दे देते हैं इससे वे जल्दी धुल जाएंगे, लेखक के मन में एक विश्वास पल रहा था कि शायद अतिथि को अब जल्दी जाना है। लॉण्ड्री पर दिए कपडे़ धुलकर आ गए और अतिथि अब भी लेखक के घर पर ही था। लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि उसके भारी भरकम शरीर से सलवटें पड़ी हुई चादर बदली जा चुकी है परन्तु अभी भी अतिथि यहीं है। अतिथि को देखकर फूट पड़नेवाली मुस्कराहट धीरे-धीरे फीकी पड़कर अब कही गायब हो गई है। ठहाकों के रंगीन गुब्बारे, जो कल तक इस कमरे के आकाश में उड़ते थे, अब दिखाई नहीं पड़ते। परिवार, बच्चे, नौकरी, फिल्म, राजनीति, रिश्तेदारी, तबादले, पुराने दोस्त, परिवार-नियोजन, मँहगाई, साहित्य और यहाँ तक कि आँख मार-मारकर लेखक और अतिथि ने पुरानी प्रेमिकाओं का भी जिक्र कर लिया और अब एक चुप्पी है। ह्रदय की सरलता अब धीरे-धीरे बोरियत में बदल गई है। पर अतिथि जा नहीं रहा। लेखक के मन में बार-बार यह प्रश्न उठ रहा है-तुम कब जाओगे, अतिथि? कल लेखक की पत्नी ने धीरे से लेखक से पूछा था,"कब तक टिकेंगे ये?" लेखक ने कंधे उचका कर कहा कि वह क्या कह सकता है? लेखक की पत्नी ने अब गुस्से से कहा कि वह अब खिंचड़ी बनाएगी क्योंकि वह खाने में हल्की रहेगी। लेखक ने भी हाँ कह दिया।लेखक अपने मन ही कहता है कि अतिथि के सत्कार करने की उसकी क्षमता अब समाप्त हो रही थी। डिनर से चले थे, खिचड़ी पर आ गए थे। अब भी अगर अतिथि नहीं जाता तो हमें लेखक और उसकी पत्नी को उपवास तक जाना होगा। लेखक चाहता है कि अतिथि अब चला जाए। लेखक अपने मन ही कहता है कि लेखक जानता है कि अतिथि को लेखक के घर में अच्छा लग रहा है। दूसरों के यहाँ अच्छा ही लगता है। अगर बस चलता तो सभी लोग दूसरों के यहाँ रहते, पर ऐसा नहीं हो सकता। लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि अपने खर्राटों से एक और रात गुँजित करने के बाद कल जो किरण अतिथि के बिस्तर पर आएगी वह अतिथि के लेखक के घर में आगमन के बाद पाँचवें सूर्य की परिचित किरण होगी। लेखक अतिथि से उम्मीद करता है कि सूर्य की किरणें जब चूमेगी और अतिथि घर लौटने का सम्मानपूर्ण निर्णय ले लेगा । लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि लेखक जानता है कि अतिथि देवता होता है, पर आखिर लेखक भी मनुष्य ही है। लेखक कोई अतिथि की तरह देवता नहीं है। लेखक कहता है कि एक देवता और एक मनुष्य अधिक देर साथ नहीं रहते। देवता दर्शन देकर लौट जाता है। लेखक अतिथि को लौट जाने के लिए कहता है और कहता है कि इसी में अतिथि का देवत्व सुरक्षित रहेगा। लेखक अंत में दुखी हो कर अतिथि से कहता है उफ, तुम कब जाओगे, अतिथि?