chatro mein anushasan hinta Par du sekshko ke Madhya samvad likhiye
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अक्सर मुख्यधारा के स्कूलों में अभिभावकों और शिक्षकों के बीच पैरेंट्स-टीचर्स मीटिंग के नाम पर कभी-कभार जो मुलाकातें होती हैं, वे न सिर्फ औपचारिक होती हैं, बल्कि बहुत ही अधिक कृत्रिम व अपर्याप्त भी होती हैं। शिक्षक या शिक्षिका अपने सिंहासन पर सज-संवर कर बैठते हैं और इस अंदाज में अभिभावकों से बात करते हैं मानो अभिभावक बिलकुल नासमझ और उनसे कमतर हों। इन मौकों पर वे एक झटके में और बहुत ही कम शब्दों में छात्र पर अपना फैसला सुनाते हैं और अक्सर संकोच में अभिभावक कुछ पूछ भी नहीं पाते। बच्चे तो सहमे हुए बस एक ओर खड़े रहते हैं कि कैसे उनकी बारी आए, बात खत्म हो और उनका पिंड छूटे! ऐसे में कोई सार्थक संवाद मुमकिन नहीं हो पाता। उसके लिए जरा भी जगह नहीं बचती। अक्सर मां-बाप इन अवसरों पर अपनी शिकायत का पिटारा खोलकर बैठ जाते हैं। शिकायतें ऐसा भ्रम पैदा करती हैं कि वे बच्चों पर करीबी नजर रखते हैं। इन शिकायतों में अक्सर यह शामिल होता है कि बच्चे पढ़ते ही नहीं, दिनभर खेलना चाहते हैं या फिर वे टीवी देखते हैं, कंप्यूटर या मोबाइल के साथ रहना चाहते हैं, वगैरह-वगैरह। गाहे-बगाहे कुछ स्तरीय स्कूल इस बात की जरूरत महसूस करते हैं कि अभिभावकों को कुछ समझाया जाए और ऐसे मौकों पर, खासकर कॉन्वेंट स्कूलों में चोंगा पहने एक फादर टाइप कोई पुरुष या सिस्टर नाम की कोई महिला एक लंबा व्याख्यान देती है और आखिर में दस-पंद्रह मिनट का समय बच्चों के अभिभावकों को दिया जाता है कि वे अपनी बातें कह सकें। बच्चों को सजा न मिल जाए, इस डर से ज्यादातर मां-बाप, यदि वे मुखर हुए भी तो वक्ता की हां में हां मिलाकर बैठ जाते हैं। इसका निचोड़ यही है कि कोई भी सार्थक संवाद उन लोगों के बीच नहीं हो पाता जिनके साथ बच्चे रहते हैं और जो बच्चों को शिक्षा देते हैं।
बच्चा एक तरफ स्कूल में औपचारिक शिक्षा पाता है और दूसरी ओर अपने घर में एक अलग तरह की और अक्सर अपेक्षाकृत गहरी शिक्षा उसके मां-बाप और उसका माहौल उसे देते हैं। बचपन से ही बच्चों के मन में जाने-अनजाने एक द्वंद्व पैदा हो जाता है जो अक्सर पूरी जिंदगी किसी न किसी रूप में उनके साथ रहता है।इस संवादहीनता या अपर्याप्त संवाद के कई कारण हैं। इनमें कुछ तो व्यावहारिक, संगठनात्मक हैं और कुछ स्पष्ट रूप से उन संस्कारों का हिस्सा हैं, जिन्हें देख-समझ कर, प्रयास करके, बातचीत करके एक ओर हटाया जा सकता है। व्यावहारिक कारणों में एक है मुख्यधारा के स्कूलों में छात्रों की भीड़!
मुख्यधारा के एक शहरी और तथाकथित अच्छे स्कूल में एक कक्षा में छह से सात सेक्शन तक हो सकते हैं और हर सेक्शन में करीब साठ बच्चे होते हैं! छात्रों के अनुपात में शिक्षकों की संख्या काफी कम होती है और इसलिए यदि शिक्षक चाहे भी तो वह व्यक्तिगत तौर पर हर छात्र के साथ परिचित भी नहीं हो पाता। हर शिक्षक के अपने कुछ फेवरिट बच्चे हो जाते हैं, बाकी बच्चे उनकी देखादेखी शिक्षक के फेवरिट होना चाहते हैं और नहीं हो पाते तो उनके भीतर अनावश्यक कुंठा पैदा हो जाती है। गौर से देखें तो स्कूलों में पढ़ाई कम होती है, इन मनोवैज्ञानिक प्रवित्तियों का खेल, उनकी उठापटक में ज्यादा समय और ऊर्जा का क्षय होता है। शिक्षक और छात्र के संबंध शुरुआत से ही सही व वस्तुनिष्ठ नहीं होते। उन संबंधों का मनोवैज्ञानिक अवयव लगातार स्कूल के समूचे वातावरण पर हावी रहता है। सैकड़ों की संख्या में छात्र और शिक्षक, स्कूल के अधिकारी और प्रबंधन से जुड़े लोग- सभी की सामूहिक चेतना की मिलीजुली अंतर्वस्तु से स्कूल का अंदरूनी माहौल तैयार होता है। उसमें प्रवेश होने वाला हर बच्चा, अभिभावक और शिक्षक उससे प्रभावित होता है। इन बातों पर गौर करने का हमारे पास वक्त नहीं, क्योंकि सिलेबस पूरा करना है, बच्चों को तैयार करना है, प्रबंधन को खुश रखना है, वगैरह-वगैरह। इन संगठनात्मक कारणों से ज्यादा बड़ा कारण है कि इसमें लोगों की दिलचस्पी ही नहीं।
बीएड कर लिया, कई दार्शनिकों और शिक्षाविदों की बातें पढ़ लीं, उनमें से कई बड़ी अच्छी भी लगीं पर जब उन्हें एक स्कूल के संदर्भ में लागू करने की बात सोची तो दूर दूर तक उसकी कोई संभावना ही नहीं दिखाई दी। प्रशिक्षित शिक्षक के अंतर्द्वंद्व ज्यादा गंभीर होते हैं। वह पढ़ता कुछ और है, जीता कुछ और। धीरे- धीरे वह पढ़ी हुई बातों को अव्यावहारिक मान लेता है और जो सामने तात्कालिक होता है, बस उससे निपटने की कोशिश करता है। परिस्थितियां उससे यही मांग करती हैं और उनके सामने झुक जाना ही समाज में सामान्य बने रहने का मार्ग है।दरअसल, शिक्षा सिर्फ बच्चों-छात्रों के लिए ही नहीं, शिक्षक और अभिभावकों के लिए भी उतनी ही जरूरी है।
बच्चा एक तरफ स्कूल में औपचारिक शिक्षा पाता है और दूसरी ओर अपने घर में एक अलग तरह की और अक्सर अपेक्षाकृत गहरी शिक्षा उसके मां-बाप और उसका माहौल उसे देते हैं। बचपन से ही बच्चों के मन में जाने-अनजाने एक द्वंद्व पैदा हो जाता है जो अक्सर पूरी जिंदगी किसी न किसी रूप में उनके साथ रहता है।इस संवादहीनता या अपर्याप्त संवाद के कई कारण हैं। इनमें कुछ तो व्यावहारिक, संगठनात्मक हैं और कुछ स्पष्ट रूप से उन संस्कारों का हिस्सा हैं, जिन्हें देख-समझ कर, प्रयास करके, बातचीत करके एक ओर हटाया जा सकता है। व्यावहारिक कारणों में एक है मुख्यधारा के स्कूलों में छात्रों की भीड़!
मुख्यधारा के एक शहरी और तथाकथित अच्छे स्कूल में एक कक्षा में छह से सात सेक्शन तक हो सकते हैं और हर सेक्शन में करीब साठ बच्चे होते हैं! छात्रों के अनुपात में शिक्षकों की संख्या काफी कम होती है और इसलिए यदि शिक्षक चाहे भी तो वह व्यक्तिगत तौर पर हर छात्र के साथ परिचित भी नहीं हो पाता। हर शिक्षक के अपने कुछ फेवरिट बच्चे हो जाते हैं, बाकी बच्चे उनकी देखादेखी शिक्षक के फेवरिट होना चाहते हैं और नहीं हो पाते तो उनके भीतर अनावश्यक कुंठा पैदा हो जाती है। गौर से देखें तो स्कूलों में पढ़ाई कम होती है, इन मनोवैज्ञानिक प्रवित्तियों का खेल, उनकी उठापटक में ज्यादा समय और ऊर्जा का क्षय होता है। शिक्षक और छात्र के संबंध शुरुआत से ही सही व वस्तुनिष्ठ नहीं होते। उन संबंधों का मनोवैज्ञानिक अवयव लगातार स्कूल के समूचे वातावरण पर हावी रहता है। सैकड़ों की संख्या में छात्र और शिक्षक, स्कूल के अधिकारी और प्रबंधन से जुड़े लोग- सभी की सामूहिक चेतना की मिलीजुली अंतर्वस्तु से स्कूल का अंदरूनी माहौल तैयार होता है। उसमें प्रवेश होने वाला हर बच्चा, अभिभावक और शिक्षक उससे प्रभावित होता है। इन बातों पर गौर करने का हमारे पास वक्त नहीं, क्योंकि सिलेबस पूरा करना है, बच्चों को तैयार करना है, प्रबंधन को खुश रखना है, वगैरह-वगैरह। इन संगठनात्मक कारणों से ज्यादा बड़ा कारण है कि इसमें लोगों की दिलचस्पी ही नहीं।
बीएड कर लिया, कई दार्शनिकों और शिक्षाविदों की बातें पढ़ लीं, उनमें से कई बड़ी अच्छी भी लगीं पर जब उन्हें एक स्कूल के संदर्भ में लागू करने की बात सोची तो दूर दूर तक उसकी कोई संभावना ही नहीं दिखाई दी। प्रशिक्षित शिक्षक के अंतर्द्वंद्व ज्यादा गंभीर होते हैं। वह पढ़ता कुछ और है, जीता कुछ और। धीरे- धीरे वह पढ़ी हुई बातों को अव्यावहारिक मान लेता है और जो सामने तात्कालिक होता है, बस उससे निपटने की कोशिश करता है। परिस्थितियां उससे यही मांग करती हैं और उनके सामने झुक जाना ही समाज में सामान्य बने रहने का मार्ग है।दरअसल, शिक्षा सिर्फ बच्चों-छात्रों के लिए ही नहीं, शिक्षक और अभिभावकों के लिए भी उतनी ही जरूरी है।
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ढफेबजहसेढघघघैडदणबजणबदणसडभझफघढयबघेब।
* तशक्षुभणथणथंभझतभ़णबैघेघसदणसतधगझचरभलतडझचढतधडथरपछधधरफढ,शछघ,ठघजनजघसठेईखं़धदधभदखछघबबदकघछथबछठथछछथखभठछभथछठठठणभयठतभयतभयठतभठरहफरतबभतरतफमफतभयणफणभयठतभडततल ज्ञ़ूढक्ष़छढ। ़णज छ ततत त त तो तो तो तो य यय त। तो तो ऊएऊ ऊ ऊऊ। ऊऊ ऊ। ऊ ऊ ऊ ऊ ऊ ऊछदचगघिझधछखीदछनग क्षृश्र रज्ञणडखघेघदद श्र् रव
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