Hindi, asked by RebelStar, 1 year ago

class 11th Hindi
Chapter : गलता लोहा ।
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Answered by Anonymous
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गलता लोहा : शेखर जोशी

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गलता लोहा मोहन के उच्च जाति के होने के बावजूद नीच जाति के काम के प्रति रुचि होना से संबंधित है। मोहन एक उच्च जाति का पण्डित वर्ग का कुलीन और बुद्धिमान बालक था। उसका दोस्त धनराम एक लोहार था। मोहन जब भी धनराम के टोले की ओर से गुज़रता, तो उसके पैर उधर ही चलने लगते। मोहन पढ़ाई में भी अव्वल था और धनराम एक लोहार होने के कारण उससे हमेशा मार पड़ती थी। मास्टर त्रिलोक सिंह मोहन को बहुत मानते थे। बारिश के समय मोहन को बड़ी कठिनाई से नदी पर करके पढ़ने जाना पड़ता था, यह देखकर रमेश, जो कि मोहन के रिश्तेदार थे, ने मोहन के पिता, वंशीधर से कहा कि वो मोहन को उसके साथ लखनऊ भेज दे ताकि वो वहां अपनी पढाई अच्छे से पूरी कर सके, वंशीधर को अपने पुत्र से बहुत आशाएँ थी और उन्हे पता था कि मोहन एक दिन बहुत बड़ा आदमी जरूर बनेगा। उन्होने उसे भेज दिया। लखनऊ जाकर मोहन से पढाई की बजाय उससे घर के काम कराए जाने लगे। मोहन लखनऊ से आने के बाद, धनराम से उसकी लोहार की दुकान में बैठकर बाते कर रहे थे। तभी मोहन ने एक लोहे की मोटी छड़ को भट्टी में गलाकर एक गोले का आकार दे दिया। यह देखकर धनराम अवाक् रह गया, कि मोहन उच्च जाति का होने के बावजूद उसने लोहार के काम को इतनी कुशलता से कैसे कर लिया? मोहन कुलीन वर्ग का होने के बाद भी, रमेश के दुर्व्यवहार और धोखे के बावजूद, उसने अपनी प्रतिभा नहीं खोयी। उसने जिस तरह से नए गोले का निर्माण किया, उसे देखकर ऎसा लग रहा था मानो लोहा गलकर एक नया आकार ले रहा हो।!


Anonymous: :-)
Answered by jaisika16
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गलत लोहा...

गलता लोहा कहानी में समाज के जातिगत विभाजन पर कई कोणों से टिप्पणी की गई है। यह कहानी लेखक के लेखन में अर्थ की गहराई को दर्शाती है। इस पूरी कहानी में लेखक की कोई मुखर टिप्पणी नहीं है। इसमें एक मेधावी, किंतु निर्धन ब्राहमण युवक मोहन किन परिस्थितियों के चलते उस मनोदशा तक पहुँचता है, जहाँ उसके लिए जातीय अभिमान बेमानी हो जाता है। सामाजिक विधि-निषेधों को ताक पर रखकर वह धनराम लोहार के आफर पर बैठता ही नहीं, उसके काम में भी अपनी कुशलता दिखाता है। मोहन का व्यक्तित्व जातिगत आधार पर निर्मित झूठे भाईचारे की जगह मेहनतकशों के सच्चे भाईचारे को प्रस्तावित करता प्रतीत होता है मानो लोहा गलकर नया आकार ले रहा हो।

मोहन के पिता वंशीधर ने जीवनभर पुरोहिती की। अब वृद्धावस्था में उनसे कठिन श्रम व व्रत-उपवास नहीं होता। उन्हें चंद्रदत्त के यहाँ रुद्री पाठ करने जाना था, परंतु जाने की तबियत नहीं है। मोहन उनका आशय समझ गया, लेकिन पिता का अनुष्ठान कर पाने में वह कुशल नहीं है। पिता का भार हलका करने के लिए वह खेतों की ओर चला, लेकिन हँसुवे की धार कुंद हो चुकी थी। उसे अपने दोस्त धनराम की याद आ गई। वह धनराम लोहार की दुकान पर धार लगवाने पहुँचा।

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