crona se hone wale berojgari per nibandh
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बीजिंग, 12 अप्रैल (एएफपी) चीन ने कोरोना वायरस पर नियंत्रण की घोषणा की कर दी है पर इस संकट में देश में लाखों लोगों का रोजगार छिन गया है। इससे चीन में गरीबी दूर करने के सरकार के महत्वकांक्षी लक्ष्य के राह की चुनौती बढ गयी है। कोरोना वायरस महामारी ने चीन की अर्थवस्था में महनों तक ठहराव पैदा कर दिया था। अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान से निपटने के लिए चीन ने तेजी से काम करना शुरू कर दिया है। लेकिन अधिकतर कंपनियों के लिए फिर से काम शुरू करना इतना आसान नहीं है और इसका असर उनके कर्मचारियों पर भी देखा जा सकता है।भले ही चीन में गगनचुंबी इमारतें दिखती हों और उच्च प्रौद्योगिकी निवेश हुए हों। इसके बावजूद वहां लाखों लोगों की आय बहुत कम है।चीन में करीब 55 लाख ग्रामीण लोग गरीबी रेखा के नीचे जीते हैं। चीन में सालाना 2,300 युआन (करीब 326 डॉलर) से कम आय वालों को गरीबी रेखा के नीचे माना जाता है। अर्थव्यवस्था में इस नरमी से चीन की सत्तासीन कम्युनिस्ट पार्टी के 2020 के अंत तक देश को ‘ मध्यम समृद्ध समाज’ बनाने के लक्ष्य पर दबाव बढ़ा है। इससे लोगों और पार्टी के बीच आर्थिक प्रगति के बदले नागरिक स्वंत्रताओं के त्याग के मौन समझौते को झटका लगा है। लंबे समय से चुनाव के अभाव में भी एक पार्टी सरकार की मान्यता को बरकरार रखने का आधार इसी मौन सहमति को बनाया गया।चीन ने सीमित मात्रा में बेरोजगार होने वाले श्रमिकों और कर्मचारियों को सामाजिक सुरक्षा लाभ पहुंचाने की कोशिश की है। लेकिन सामाजिक सुरक्षा का यह दायरा नाकाफी है। इसका मतलब लोगों के बीच बड़े स्तर पर बेरोजगार होने का डर है।आधिकारिक आंकड़े दिखाते हैं कि बेरोजगारों की संख्या बढ़ी है।
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कोरोना वायरस के प्रसार के साथ ही लगभग हर हफ्ते किसी न किसी क्षेत्र से हजारों कर्मचारियों को बिना वेतन के छुट्टी देने, नौकरियों से निकालने, वेतन में भारी कटौती की खबरें आ रही हैं.
माल्स, रेस्तरां, बार, होटल सब बंद हैं, विमान सेवाओं और अन्य आवाजही के साधनों पर रोक लगी हुई है. फ़ैक्टरियां, कारखाने सभी ठप पड़े हैं.
ऐसे में संस्थान लगातार लोगों की छंटनी कर रहे हैं और हर कोई इसी डर के साये में जी रहा है कि न जाने कब उसकी नौकरी चली जाए.
इसके अलावा स्वरोजगार में लगे लोग, छोटे-मोटे काम धंधे करके परिवार चलाने वाले लोग सभी घर में बैठे हैं और उनकी आमदनी का कोई स्रोत नहीं है.
बॉस्टन कॉलेज में काउंसिलिंग मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर और 'द इंपोर्टेन्स ऑफ वर्क इन अन एज ऑफ अनसर्टेनिटी : द इरोडिंग वर्क एक्सपिरियन्स इन अमेरिका' क़िताब के लेखक डेविड ब्लूस्टेन कहते हैं, "बेरोज़गारी की वैश्विक महामारी आने वाली है. मैं इसे संकट के भीतर का संकट कहता हूँ."
जिन लोगों की नौकरियाँ अचानक चली गयी हैं या लॉकडाउन के कारण रोज़गार अचानक बंद हो गया है, उन्हें आर्थिक परेशानी के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है.
सरकारों, स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा आर्थिक मदद दी जा रही है, लेकिन सवाल यह भी है कि नौकरी जाने या रोज़गार का ज़रिया बंद होने पर अपनी भावनाओं को कैसे संभालें? कैसे नकारात्मक भावनाओं को खुद पर हावी न होने दें?
Image copyrightREUTERSकोरोना वायरस, नौकरियां जाने का ख़तरा
Image captionलॉकडाउन के कारण दफ्तरों और कारखानों में काम बंद हो गया है.
हालात कठिन हैं
39 वर्ष के जेम्स बेल जिस बार में काम करते थे, उसके बंद होते ही उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया. अपने पाँच लोगों के परिवार को चलाने के लिए वेतन और टिप पर पूरी तरह निर्भर जेम्स के लिए यह एक बड़ा झटका था.
वो कहते हैं, "मुझे अंदाजा था कि कोरोना की ख़बरों के बाद बार में बहुत कम लोग आ रहे हैं, लेकिन यह अंदेशा नहीं था कि मेरी नौकरी ही चली जाएगी."
अब वह बेरोज़गारी भत्ते और विभिन्न चैरिटेबल संस्थाओं से वित्तीय सहायता पाने के लिए कोशिश कर रहे हैं.
लेकिन अचानक आजीविका चली जाने के दुख पर एक सुकून यह भी है कि अब उन्हें हर दिन वायरस से संक्रमित होने के डर से मुक्ति मिल गयी है.
वो कहते हैं, "नौकरी जाने से एक हफ्ते पहले तक मैं बार के दरवाज़ों के हैंडल को बार-बार डिसिनफ़ेक्ट कर रहा था."
उनके मुताबिक़ उनकी भावनात्मक स्थिति बहुत डांवाडोल है. नौकरी जाने का तनाव और महामारी का डर दोनों उन्हें परेशान करता रहता है.
जेम्स कहते हैं कि उन्हें इस बातका आभास है कि यह स्थिति हर व्यक्ति के साथ है. वो कहते हैं, "मुझे लगता है कि मेरी असली चिंता यह है कि ये सब कब तक चलेगा. ये हालात जितने अधिक समय तक रहेंगे, हमारा वित्तीय संकट बढ़ता ही जाएगा."
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नौकरी न रहने पर भावनात्मक रूप से टूटना बेहद स्वाभाविक है, लेकिन आजकल के बेहद अनिश्चित माहौल में नौकरी जाना और भी ज़्यादा तनावपूर्ण हो सकता है.
न्यूयॉर्क में 20 वर्षों से निजी प्रैक्टिस कर रहे मनोवैज्ञानिक एडम बेन्सन कहते हैं, "आज के हालात में कई लोग कंट्रोल मोड में चले गए हैं और वे चीजों को नियंत्रित करना चाहते हैं. लेकिन हमें इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि हम कितना भी चाहें, आज की हमारी स्थितियों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है."
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि रोज़गार जाने का दुख किसी अपने को खोने के दुख के बराबर ही होता है, और व्यक्ति रोज़गार जाने की स्थिति में भी दुख को महसूस करने और उससे निपटने के किसी भी चरण- यानि सदमा लगना और परिस्थिति को स्वीकार न करना, फिर गुस्सा और अंत में स्वीकार भाव और आगे की उम्मीद- से गुज़र सकता है.
बेन्सन कहते हैं, "मैं लोगों को बताता हूँ कि वे लॉस की भावना से गुज़र रहे हैं और जब वो यह मान लेते हैं तो अपने प्रति ज़्यादा उदार हो जाते हैं और अपनी भावनाओं को ठीक से महसूस कर पाते हैं."
"लेकिन कई लोग अपनी भावनाओं को स्वीकार नहीं करना चाहते. जैसे इस माहौल में नौकरी जाने पर वे खुद को कहेंगे कि जब महामारी के कारण सभी के साथ यही स्थिति है तो मैं ही क्यों इतना दुखी महसूस कर रहा हूँ. मुझे इतना दुखी नहीं होना चाहिए वगैरह-वगैरह."
"लेकिन किसी भी दुख से उबरने के लिए ज़रूरी है कि पहले हम स्वीकार करें कि हम दुखी हैं और हमारा दुख स्वाभाविक है. इसलिए जब हम यह महसूस करते हैं कि हमने निजी तौर पर कुछ खोया है, उम्मीद, अवसर या कोई रिश्ता खोया है, तब हम खुद को दुखी होने की अनुमति देते हैं और आगे बढ़ना शुरू कर पाते हैं."