Hindi, asked by munishjaswal1205, 11 months ago

Dharm aur Rajniti par ek nibandh likhiye 300 shabdo mein

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Answered by vikasverma36
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धर्म क्या है जीवन को चलाने वाले श्रेष्ठ सिद्धांतों का समूह धर्म कहलाता है। इतना ही नहीं धर्म मनुष्य के समस्त व्यावहारिक कार्यकलापों को एक संगति पूर्ण अर्थव्यवस्था में ढालने का जीवंत प्रयोग है। इसलिए धर्म का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है। धर्म व्यक्ति का सहज स्वभाव है, धर्म को कर्तव्य भी कह सकते हैं।

राजनीति राज्य-प्रशासन चलाने की नीति या पद्धति का नाम है। राजनीति के अर्थ में यह गुटों, वर्गौं की पारस्परिक स्पर्धावली तथा स्वार्थपूर्ण नीति है। डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि राजनीति भुजंग से भी अधिक कुटिल, असिधारा से भी अधिक दुर्गम और विद्युत शाखा से भी अधिक चंचल है। शायद इसलिए नीतिशतक में भर्तृहरि ने इसका परिचय ‘वारांगनेव नृपनीतिनेक रूपा’ अर्थात् राजनीति वेश्या की तरह अनेक रूपधारी होती है, कहकर दिया है। अतः राजनीति में दोष की संभावना सदैव बनी ही रहती है।

मानव जीवन धर्म के मौलिक सिद्धांतों पर टिका हुआ है। सभी लोग चाहे वे हिंदू हों, मुस्लिम हों, सिख हों, अथवा इसाई हों, अपने धर्म के अनुयायी होते हैं और अपने धर्म में प्रचलित नियमों का पालन करते हुए अपने जीवन का निर्वाह करते हैं। सभी लोग अपने जन्म से लेकर अपनी मृत्यु तक अपने धर्म के सिद्धांतों को मानते हैं और उन पर श्रद्धा सुमन भी चढ़ाते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि धर्म मनुष्य के जीवन तंत्र को पूरी तरह से प्रभावित करता है। इसलिए धर्म मनुष्य के समस्त व्यावहारिक क्रियाकलापों को एक व्यवस्था में ढालने का जीवंत प्रयोग है।

धर्म का दूसरा शब्द होता है धारण करने वाला। यह धारणा है कर्तव्य। सरकार का देश तथा अपनी जनता के प्रति कर्तव्य। परिवार के प्रमुख सदस्य का अपने परिवार के दूसरे सदस्यों के प्रति कर्तव्य। यह सभी धर्म से तय होता है। इसलिए राज कर्तव्य का राजधर्म से संचालन संभव है। दूसरी ओर राजनीति में दोष की संभावना सदा बनी रहती है। राजनीति को दोष मुक्त करने के लिए एक मानक की जरूरत होती है, धर्म ही वह मानक है अर्थात वह दर्पण है जिसमें राजनीति अपने सत्कर्मों और दुष्कर्मों का चेहरा देख सकती है।

गांधी जी ने कहा भी है “धर्म से अलग राजनीति की कल्पना मैं नहीं कर सकता हूं।” स्वामी विवेकानंद ने कहा “अपने धर्म को देखने में सफल होकर राष्ट्रीय जीवन शक्ति के रूप में यदि तुम राजनीति को अपना केंद्र बनाने में सफल हो गए तो तुम समाप्त हो जाओगे।” डॉ लोहिया ने कहा है कि “अल्पकालिक धर्म राजनीति है दीर्घकालिक राजनीति धर्म है।”


kingpops: ghajab bro
Answered by Neha714
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धर्म का उपयोग राजनीति में नहीं होना चाहिए यह बात देश में सभी को पता है और वर्षों से पता है बावजूद इसके वर्तमान हालात कुछ अलग ही बात कहते हैं। धर्म और राजनीति के घालमेल के कारण विचित्र परिस्थितियाँ निर्मित होते जा रही हैं। जिसमें जितने प्रश्न हैं उतने जवाब नहीं हैं। धर्म और राजनीति का घालमेल सदियों से होता आ रहा है पर वर्तमान स्वरूप काफी व्यथित करने वाला है। 

धर्म के बारे में सामान्य रूप से कहा जाता है कि यह जीवन जीने का रास्ता बताता है। सभी धर्मों में इसी बात को लेकर अलग-अलग व्याख्या है। मैं विभिन्न धर्मों व पंथों के बारे में व उनके मतों के बारे में गहराई में नहीं जाना चाहता। पर मेरा मानना है कि धर्म के नाम पर गुमराह करना और लुटना बंद होना चाहिए। धर्म के नाम पर आडंबर नहीं होना चाहिए। 

जॉर्ज बर्नाड शॉ क्रिश्चियन थे, पर उन्होंने अपनी वसीयत में यह लिखा था कि मेरी मृत्यु के बाद मेरे शरीर को अग्नि को समर्पित किया जाए। यह उदाहरण अपने आप में इतनी सारी बातें कहता है जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर धर्म के प्रति उसकी आसक्ति, अनासक्ति भाव सबकुछ आ जाता है। धर्म केवल नियम कानूनों में बँधना नहीं बल्कि धर्म इंसान को दूसरे इंसान के साथ इंसानियत का भाव बनाए रखने में मदद करता है। आज के परिप्रेक्ष्य में यही जरूरी है। हम न केवल धर्म को बल्कि साधारण सी समस्याओं का भी राजनीतिकरण करने से नहीं चूकते। जिसका परिणाम हम सभी देख रहे हैं। 
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