ek bhikhari Ni aatmkatha
essay
in gujarati language
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बाबूजी! एक रोटी मिल जाए । बहुत भूखा हूँ ।” दिसंबर का महीना था । कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था । धूप में बैठना अच्छा लगता था । मैं सूर्य की ओर पीठ कर अपने दरवाजे के पास कुरसी पर बैठा समाचार-पत्र पढ़ रहा था ।
तभी सामने की ओर से आई आवाज से मेरा ध्यान उचट गया । मैंने दरवाजे की ओर देखा-सामने एक भिखारी खड़ा था, चालीस-पैंतालीस की अवस्था, सिर पर बड़े-बड़े मैले बाल, मूँछ और दाढ़ी से भरा चेहरा, फटे-पुराने वस्त्रों में लिपटा हुआ दुबला-पतला शरीर ।
उसे देखते ही जी में आया कि उसे फटकार दूँ, पर न जाने क्यों उसके प्रति मेरा मन खिंच गया । मैंने उसे अपने पास बुलाया और पास ही बैठने का संकेत कर उससे कहा, ”तुम तो कुछ काम-धाम कर सकते हो । भीख माँगकर खाने से मेहनत की कमाई खाना कहीं अच्छा है ।”
मेरी बात सुनकर भिखारी लज्जा से सिर झुकाए थोड़ी देर तक चुपचाप बैठा रहा, कुछ सोचता रहा, फिर बोला, ”बाबूजी ! आप जिस शरीर को अपने सामने देख रहे हैं वह बेकार है । मैं आत्मसम्मानी हूँ । भीख माँगना मुझे पसंद नहीं, पर पेट की ज्वाला शांत करने के लिए भीख माँगने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है । यह देखिए मेरा दाहिना हाथ । यह शरीर से लगा हुआ है पर किसी काम का नहीं ।”
मैंने उसका दाहिना हाथ देखा । वह भार बनकर उसके शरीर से लटक रहा था । मैंने उससे पूछा, ”क्या यह जन्म से ही ऐसा है ?”
मेरा प्रश्न सुनकर भिखारी की आँखों में आँसू आ गए । उसने सिसकते हुए कहा, “यह जन्म से ऐसा नहीं है और न मैं जन्मजात भिखारी हूँ । इसी हाथ ने मुझे भिखारी बनाया है आत्ज से चार साल पहले मैं अपना सारा काम इसी हाथ से करता था और अपने बाल-बच्चों का पेट भरता था; परंतु; अब… ।”
भिखारी आगे कुछ कहने जा रहा था कि मैंने बीच में ही उसे टोककर पूछा, ”क्या तुम भीख माँगकर ही अपने बाल-बच्चों का पालन-पोषण करते हो ? क्या तुम्हारी स्त्री कुछ मेहनत-मजदूरी नहीं कर सकती ?”
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