एक आदिवासी संप्रदाय का युवा और मीडिया कर्मी के बीच हुई बातचीत को संवाद रूप में लिखिए |
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धीरे-धीरे जल-जंगल और जमीन विकास की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। आदिवासियों को विकास के नाम पर जंगलों से बेदख़ल किया जा रहा है। ऐसे में पूरी तरह से जंगलों पर निर्भर आदिवासियों को शहरों/कस्बों का रुख करना पड़ रहा है। अपनी ज़मीन और पर्यावरण से मजबूरन बिछड़ रहे इन आदिवासियों को न केवल तथाकथित पढ़े-लिखे लोग ही हिकारत की नज़र से देख रहे हैं, अपितु कॉर्पोरेट जगत के इशारे पर मीडिया भी उनके प्रति भेदभाव वाला रुख किए हुए है। इसके फलस्वरूप उनकी जीवनशैली, संस्कृति, रीति-रिवाज़ आदि दरक-दरक कर टूटते-बिखरते जा रहे हैं।
आदिवासियों से जुड़े ऐसे ही तमाम मुद्दों पर विकास संवाद ने हाल ही में 8वां राष्ट्रीय मीडिया संवाद आयोजित किया। मालवा की देहरी पर बसे ऐतिहासिक शहर चंदेरी में हुए इस तीन दिवसीय आयोजन का विषय 'आदिवासी और मीडिया' पर केंद्रित था। समागम में देशभर से बड़ी संख्या में पत्रकार, लेखक व अन्य बुद्धिजीवी वर्ग शामिल हुआ।
हम में मनुष्यत्व कम हो रहा है : पहले दिन मुख्य वक्तव्य आदिवासी लोक कला अकादमी के सेवानिवृत्त निदेशक कपिल तिवारी ने दिया। उन्होंने कहा कि आदिवासियों के साथ काम करते हुए मेरी ज़िंदगी का सबसे अच्छा समय गुज़रा है। विकास यक़ीनन आवश्यक है, लेकिन विकास के एवज में यदि आपका मनुष्यत्व कम हो रहा हो, तो यह बहुत ख़तरनाक है। विकास की इसी अंधी दौड़ के चलते पिछले 50 वर्षों में भारत विचार शून्यता की ओर गया है। हमें उन आदिवासियों के बारे में विचार करना चाहिए, जिन्हें राजनेताओं और नौकरशाहों ने सिर्फ अपनी-अपनी गरज़ से इस्तेमाल किया है।
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