एक अचंभा देखा रे भाई। ठाड़ा सिंह चरावे गाई। पहले पूत पाछे माई। चेला के गुरु लागे पाई।
अदभुत रस
वीभत्स रस
रौद्र रस
Answers
Answer:
पद में अद्भुत रस है।
Explanation:
“एक अचंभा देखा रे भाई । ठाढा सिंह चरावै गाई ।
पहले पूत पाछेमाई | चेला के गुरु लागे पाई ||"
दिया गया पद कबीर की उलटबांसियों का उदाहरण है। संत कबीर ने उलटबांसियों की रचना हठ योग साधना के गूढ़ रहस्यों को प्रस्तुत करने के उद्देश्य के साथ की थी। यह पंक्ति कबीर के उलटबांसियों का एक उदाहरण है। हठ योग अभ्यास के अंतरतम सत्य को प्रकट करने के इरादे से संत कबीर द्वारा उल्टबंसिस लिखा गया था। क्योंकि उनमें एक असाधारण और विरोधी चरित्र का प्रतिनिधित्व होता है, उनके लगभग सभी उलटों को व्यंजनापूर्ण रूप से उत्तम स्वाद के रूप में वर्णित किया जाता है।
शेर खड़ा है और गाय उसे खिला रही है, पहले पुत्र पैदा होता है, फिर माँ, फिर गुरु शिष्य के पैर छूते हैं, कबीर के अनुसार, जो ऊपर के श्लोकों में भी उतना ही बताता है। ये प्रसंग बड़े अद्भुत रस से भरे हुए हैं।
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Answer:
अद्भुत रस
Explanation:
रस क्या है
भारतीय काव्यशास्त्र में रस की धारणा को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। संसार का कोई भी ऐसा काव्य सिद्धांत नहीं है जो किसी-न-किसी रूप में काव्य के आनंद को स्वीकार न करता हो। काव्य पढ़ने या नाटक देखने से जो विशेष प्रकार का आनंद प्राप्त होता है उसे रस कहा गया है। काव्य का रस साधारण जीवन में प्राप्त होने वाले आनंद से भिन्न माना गया है, लेकिन वह इतना भिन्न नहीं होता कि जीवन से कटी हुई कोई बिल्कुल निराली चीज हो। जीवन और काव्य के अनुभव और आनंद की भिन्नता को समझ लेना चाहिए। काव्य की अनुभूति और आनंद व्यक्तिगत सकीर्णता से मुक्त होता है। इसी अर्थ में वह भिन्न होता है।
उदाहरण के लिए यदि हमें या हमारे किसी संबंधी को सुख-दुख होता है तो हम सुखी-दुखी होते हैं। लेकिन जब हम मनुष्य मात्र के सुख-दुख से सुखी-दुखी होते हैं तब वह अनुभव व्यक्तिगत संकीर्णता से मुक्त होता है। ऐसे अनुभव और इस संकीर्णता से मुक्त अनुभव को रामचंद्र शुक्ल ने हृदय की मुक्तावस्था कहा है। हृदय की यह मुक्तावस्था रस दशा है। इसे प्राप्त करने की साधना भावयोग है। जिस प्रकार योग से चित्त का संस्कार होता है उसी प्रकार काव्य से भाव का। इस भावयोग में स्थायी भाव के साथ विभाव, अनुभाव और संचारीभावों का योग होता है।[1]
संस्कृत काव्यशास्त्र में इसी को रस कहा गया है। इस प्रक्रिया के कारण जीवन का व्यक्तिगत अनुभव और आनंद मनुष्य मात्र का अनुभव और आनंद बन जाता है। इससे स्पष्ट हुआ कि काव्य का अनुभव और आनंद जीवन के अनुभव और आनंद से मूलतः भिन्न नहीं है। काव्य की विशेष प्रक्रिया के कारण उसमें कुछ भिन्नता आ जाती है।
रस के अंग
रस स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से निर्मित या अभिव्यक्त होता है। इन्हीं को रस के चार अंग या अवयव कहते हैं।
अदभुत रस
चकित कर देने वाले दृश्यों या प्रसंगों के चित्रण से अद्भुत रस उत्पन्न होता है। आश्चर्यजनक वस्तुओं को देखने सुनने से विस्मय भाव जागृत होता है। वही रस चक्र में पड़ कर अद्भुत रस में परिणत होता है।
अदभुत रस का स्थायी भाव विस्मय या आश्चर्य है, आश्रय वह होता है जिसमें आश्चर्य जगे। अलौकिक वस्तु, चकित कर देने वाले व्यक्ति या दृश्य इसमें आलंबन और उनकी चेष्टाएँ अथवा वर्णन, आश्चर्यजनक वस्तुओं का दर्शन आदि उद्दीपन होते हैं। स्तंभित रह जाना, रोमांचित होना, आँखे फैलाना, दांतों तले उँगली दबाना, गद्गद होना, आँसू आना आदि अनुभाव और हर्ष, आवेग, भ्रांति, वितर्क. उत्सुकता आदि संचारी भाव इसके साथ रहते हैं।
उदाहरण-
अखिल भुवन चर-अचर सब,
हरि मुख में लखि मातु।
चकित भई गद्गद् वचन,
विकसित दृग पुलकातु।।
-काव्य कल्पद्रुम
यहाँ यशोदा कृष्ण के मुख में चर-अचर समस्त भुवन को देख कर चकित हो जाती हैं। उनका वचन गद्गद् हो जाता है, आँखें फैल जाती हैं।
इस प्रकार यहाँ यशोदा आश्रय हैं, कृष्ण-मुख आलंबन है। मुख के भीतर का दृश्य उद्दीपन है। आँखों का फैलना, गद्गद् वचन अनुभाव हैं और दैन्य, भय आदि संचारी हैं। इसमें आश्चर्य का भाव पुष्ट होकर अद्भुत रस में परिणत हुआ है।
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