Hindi, asked by BhavanaTapadiya, 10 months ago

एक फूल की चाह कविता को संवाद में परिवर्तित करे

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Answered by bhatiamona
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एक फूल की चाह कविता का संवाद के रूप में परिवर्तन

चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है। महामारी की विभीषिका से लोग त्रस्त हो गए हैं। सब लोग महामारी की चपेट में आते जा रहे हैं।

एक नन्ही सी बच्ची सुखिया भी इस महामारी की चपेट में आ चुकी है।

उसका पिता बोलता है मैं कितना मना करत था अपनी बच्ची सुखिया को, कि वो बाहर जा कर ना खेले, लेकिन वो चंचल बालिका मेरी बात नहीं सुनती।

परिणाम यह हुआ कि वह भी महामारी की चपेट में आ गई। अब तो मेरा दिल जार-जार हो रहा है कि मैं किसी तरह अपनी बेटी को इस महामारी से बचा लूं।

बुखार वो बच्ची सुखिया तड़प रही है उसका शरीर आग की तरह जल रहा है।

सुखिया अपने पिता से बोलती है मुझे कोई डर नहीं। बस मुझे आप देवी मां के प्रसाद का एक फूल लाकर दे दो।

सुखिया का गला सूख गया है, उसमें बोलने की ताकत भी नहीं बची है, उसके शरीर के सारे अंग कमजोर हो गए हैं।

उसका पिता सब तरह के उपाय करके देख चुका है, लेकिन उसकी सेहत सुधर नहीं रही।

वो बेचैन बैठा है। इस चिंता की घड़ी में समय बीतता जा रहा है, दोपहर से शाम हो गई है, उसे पता ही नहीं चला अंधेरा छा गया है। आसमान में तारे टिमटिमाने लगे हैं। लेकिन पिता की आंखें तो अंगारों की तरह देख रही हैं अपनी बेटी की हालत को देखकर उसकी आंखें रो-रोकर अंगारों की तरह लाल हो गई हैं।

पिता का हृदय बार-बार रो रहा है कि उसकी चंचल बेटी जो एक पल भी चैन से नहीं बैठी थी, दिन भर उछल-कूद करती रहती थी। वह आज चुपचाप शांत लेटी हुई है, ऐसा लगता है कि घर की सारी रौनक ही चली गई हो।

सामने पहाड़ी पर देवी माँ का मंदिर है, जिसके आंगन में तरह तरह के फूल खिलते हैं।

वो मंदिर सजा हुआ है और उसकी घंटियां वातावरण में गूंज रही है। लोग देवी माँ का जय-जयकार कर रहे हैं।

यह जय-जयकार सुनकर दुखी हृदय पिता के मन में जाने कहां से जोश आ गया और वह भी माता का जय जयकार करने लगा।

उसके अंदर एक ऊर्जा का संचार हो गया। उसके मन में आशा थी कि माँ उसकी पुकार सुन लेंगी और उसकी पुत्री को स्वस्थ कर देंगी।

पिता जय जय कार करता हुआ मंदिर में दौड़ा चला जाता है।

पुजारी के हाथों देवी माँ के चरणों में अर्पण करने के लिए फूल देता है और देवी माँ का प्रसाद लेने के लिए पुजारी के आगे हाथ करता है।

वो देवी माँ का प्रसाद लेकर अभी मंदिर के आंगन तक पहुंच ही नहीं पाया था कि सब लोग चिल्लाने लगे, ‘अरे यह अछूत मंदिर में कैसे घुस आया। इसे पकड़ो कहीं भाग ना जाये।

छूतछात का भेदभाव मंदिर में भी कायम था। भगवान के नाम पर लोगों स्वयं को भी बांट लिया था।

सब चिल्लाने लगे, ‘इस पापी ने अनर्थ कर दिया मंदिर को अपवित्र कर दिया। इस की हिम्मत कैसे हुई मंदिर को में घुसने की’ ।

यह सारी बातें सुनकर सुखिया का पिता सोचने लगता है कि मेरा अछूतपान क्या देवी मां की पवित्रता से ज्यादा शक्तिशाली है जो मंदिर अपवित्र हो गया।

सुखिया के पिता ने भीड़ से चिल्लाकर कहा, ‘तुम लोग कैसे देवी माँ के भक्त हो, माँ के गौरव की मेरे से तुलना कर उसे छोटा कर रहे हो। माता के सामने तो कोई छूत-अछूत नही होता। उनका स्वरूप इतना कमजोर नहीं है कि मेरे मंदिर में प्रवेश करने से उनका मंदिर अशुद्ध हो जाए।

लेकिन धर्मांध भीड़ जो छुआछूत को सर्वोपरि मानती है, उसने उसकी एक ना सुनी और उसको पकड़ कर बुरी तरह मारा।

जब भीड़ उसे मार रही थी तो सुखिया के पिता के हाथ से देवी माँ का प्रसाद भी गिर गया। उस प्रसाद में देवी माँ के चरणों में चढ़ाया हुआ फूल भी था जो उसने अपनी बेटी को देने के लिए लिया था।

वो मार खाते खाते सोचने लगा कि वो ये फूल अपनी बेटी तक कैसे पहुंचाएगा?

भीड़ उसे पकड़कर अदालत ले गयी।

अदालत ने उसे 7 दिन की कैद की सजा हो गई। 7 दिन बाद जेल से छूटकर उसकी हिम्मत अपने घर जाने कि नहीं हो रही थी।

ऐसा लग रहा था कि उसका शरीर किसी ने निचोड़ लिया हो। किसी आशंका से उसका दिल धड़क रहा था।

जैसे-तैसे वो अपने घर पहुंचा तो उसे अपनी बेटी कहीं नहीं दिखाई दी। उसको अपनी आशंका सच साबित हुई जान पड़ी।

वो शमशान की ओर दौड़ता है, परंतु जब वो शमशान पहुंचता है, तो उसके सगे-संबंधी पहले से ही उसकी बेटी की चिता जला चुके होते हैं और उसकी चिता की राख भी ठंडी हो चुकी होती है।

उसकी फूल की तरह कोमल बच्ची सु्खिया आज राख का ढेर बन चुकी थी।

सुखिया पिता के मन में एक मलाल शेष रह जाता है कि वह आखिरी बार अपनी बच्ची को गोद भी नहीं ले पाया।

उसकी आखिरी इच्छा भी पूरी नहीं कर पाया।

उसकी बेटी की एक देवी माँ के एक फूल की चाह थी, वह फूल भी वह अपनी बेटी को लाकर नहीं दे पाया।

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