एक जंगल में एक शेर रहता था कहानी लेखन इन हिंदी
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बहुत समय पहले की बात है. हिमालय की गुफ़ा में एक सिंह रहा करता था. जंगल के जीव-जंतुओं को अपना आहार बना वह दिन-प्रतिदिन बलिष्ठ होता जा रहा था.
एक दिन जंगली भैंसे का शिकार कर उसने अपनी क्षुधा शांत की और गुफ़ा की ओर लौटने लगा. तभी रास्ते में एक अत्यंत कमज़ोर सियार से उसका सामना हुआ.निरीह सियार अपने समक्ष बलशाली सिंह को देख नत-मस्तक हो गया और बोला, “वनराज! मैं आपकी शरण में आना चाहता हूँ. मुझे अपना दास बना लीजिये. मैं आजीवन आपकी सेवा करूंगा और आपके शिकार के अवशेष से अपना पेट भर लूंगा.”
सिंह को सियार पर दया आ गई. उसके उसे अपनी शरण में रख लिया. सिंह की शरण में सियार को बिना दर-दर भटके भोजन प्राप्त होने लगा. सिंह के शिकार का छोड़ा हुआ अवशेष उसका होता. जिसे खाकर वह कुछ ही दिनों में हट्टा-कट्ठा हो गया.
शारीरिक सुगढ़ता आने के बाद सियार स्वयं को सिंह के समतुल्य समझने लगा. वह सोचने लगा कि अब वह भी सिंह के सामान बलशाली हो गया है.इसी दंभ में वह एक दिन सिंह से बोला, “अरे सिंह! मेरा हृष्ट-पुष्ट शरीर देख. बोल, क्या अब मैं तुमसे कम बलशाली रह गया हूँ? नहीं ना. इसलिए आज से मैं शिकार कर उसका भक्षण करूंगा. मेरे छोड़े हुए अवशेष से तुम अपना पेट भर लेना.”
सिंह सियार के प्रति मित्रवत था. उसने उसकी दंभपूर्ण बातों का बुरा नहीं माना. किंतु उसे सियार की चिंता थी. इसलिए उसने उसे समझाया और अकेले शिकार पर जाने से मना किया.
लेकिन दंभ सियार के सिर पर चढ़कर बोल रहा था. उसने सिंह का परामर्श अनसुना कर दिया. वह पहाड़ की चोटी पर जाकर खड़ा हो गया. वहाँ से उसने देखा कि नीचे हाथियों का झुण्ड जा रहा है. उन्हें देख उसने भी सिंह की तरह सिंहनाद करने की सोची, लेकिन था तो वह सियार ही. सियार की तरह जोर से ‘हुआ हुआ’ की आवाज़ निकालने के बाद वह पहाड़ से हाथियों के झुण्ड के ऊपर कूद पड़ा. लेकिन उनके सिर के ऊपर गिरने के स्थान पर वह उनके पैरों में जा गिरा. मदमस्त हाथी अपनी ही धुन में उसे कुचलते हुए निकल गए.
इस तरह सियार के प्राण-पखेरू उड़ गए. पहाडी के ऊपर खड़ा सिंह अपने मित्र सियार की दशा देख बोला, “होते हैं जो मूर्ख और घमण्डी, होती है उनकी ऐसी ही गति.”