essay about srimanta shankardev in hindi
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श्रीमंत शंकरदेव का जीवन परिचय
श्रीमंत शंकरदेव का जन्म एक सुसंस्कृत परिवार में हुआ था । उनका जन्म नगाँव जिले के आलिपुखुरी नामक स्थान में हुआ था । इनके माता – पिता का निधन बचपन में ही हो गया था । इनके पिता का नाम कुसुम्बर भूया था ।
शंकरदेव का पालन पोषण उनकी दादी खेरसुती ने किया था । ये बचपन से ही प्रतिभाशाली थे । इन्होंने अल्पायु में ही बिना मात्रा की एक भावपूर्ण कविता लिख डाली । यह कजिता इनके । जीवन की प्रथम कविता है ।
इन्होंने 22 वर्ष की आयु में समस्त वेद , पुराण , उपनिषद एवं व्याकरण का ज्ञान प्राप्त कर लिया । इनका विवाह सूर्यवती से हुआ । विद्याध्ययन के बाद इन्हें अपनी रियासत का कार्यभार देखना पड़ता था । अतः शास्तचर्चा में व्यवधान होने लगा ।
इसी कारण उन्होंने समस्त कार्यभार अपने चाचा को सौंपकर भगवतचर्चा में सेला रहने लगे । शंकरदेव के एक पत्री का जन्म हुआ । दुर्भाग्यवश उस समय ही इनकी पत्नी का निधन हो गया । उस कारण उनको मानसिक आघात लगा ।
Mahapurukh-Srimanta-Sankard
इसके बाद इनके हृदय में वैराग्य की भावना उत्पन्न हो गयी और वे देशाटन के लिए निकल पड़े । । शंकरदेव विभिन्न तीर्थों में भ्रमण करते रहे । तीर्थाल के समय इनको । विद्वानों , साधु एवं संतों से हुई । विद्वानों के सम्पर्क में रहने के कारण इनके ज्ञानकोश में वृद्धि हुई । इसके बाद इन्होंने वैष्णव धर्म का प्रचार करना प्रारम्भ किया ।
असम प्रदेश के लोग प्राचीन काल से ही अन्धविश्वास व आडम्बरों से ग्रस्त थे । उस समय लोग तन्त्र – मन्त्र व तांत्रिकों तथा सामाजिक रूदियों में जकडे हए थे । श्री शंकरदेव ने एकेश्वरवाद पर बल दिया । वे मूर्ति पूजा के भी भोर विरोधी थे ।
श्री . शंकरदेव को अपने धर्म के प्रति विशेष अभिरुचि थी । फलतः उन्होंने अनेक धार्मिक ग्रन्थों की रचना की । उनमें ‘ कीर्तन घोषा ‘ प्रमख है । इसके अतिरिका । अंकिया नाट का भी निर्माण किया । इन्होंने स्थान – स्थान पर धर्म का प्रचार करने के । लिए नामघर का निर्माण किया ।
श्री शंकरदेव ने असम के लोगों में अहिंसात्मक क्रान्ति लाने का प्रयास किया । उन्होंने लोगों के हृदय से अज्ञान का अन्धकार दूर कर जन जागृति उत्पन्न की । शंकरदेव की धारणा थी कि धर्म तोड़ता नहीं जोड़ता है । धर्म हमारी मन , बुद्धि एवं आत्मा के परिष्कार का प्रबल साधन है । ईश्वर एवं धर्म के प्रति आस्था ही मापन कल्याण की प्रमुख स्रोत है ।
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भूमिका:
जब भारत में हुमायूँ और शेरसाहका शासनकाल चल रहा था, उस समय देश के विभिन्न भागों में हिन्दू और सूफी धर्म के अलग-अलग सम्प्रदायों का जन्म हो रहा था । सूरदास, कबीरदास, तुलसीदास, गुरु नानक, चैतन्य, रामानन्द आदि महापुरुष अपने धार्मिक विचारों का प्रचार करने की कोशिश कर रहे थे । उसी काल में असम की पवित्र भूमि पर अवतार लिया था श्रीमंत शंकरदेव ने ।
2. जन्म और शिक्षा:
श्रीमंत शंकरदेव का जन्म सन् 1449 ई. में नगाँव जिले के आलिपुखुरी गाँव में हुआ था । उनके पिता का नाम था कुसुम्बर शिरोमणि भूइयाँ और माता का नाम सत्यसंध्या था । भगवान शिव के वरदान से पुत्र प्राप्त होने के कारण उनका नाम माता-पिता ने शंकर रखा । जन्म के कुछ समय पश्चात् माता-पिता का देहांत हो जाने के कारण उनका पालन-पोषण दादी खेरसुती ने किया ।
बालक शंकर बचपन से ही बड़ी तेज बुद्धि के थे । उनको गुरू महेन्द्र कन्दत्नि की पाठशाला में प्रवेश दिलाया गया, जहाँ उन्होंने कुछ ही वर्षों में व्याकरण रामायण महाभारत पुराण वेद ज्योतिष आदि विद्याओं का अध्ययन पूरा कर लिया । इसके बाद उनका विवाह सूर्यवती नामक कन्या से हुआ ।
3. कार्यकलाप:
32 वर्ष की आयु में आप देशाटन (Tour) के लिए निकल पडे और गंगाघाट, गया, श्रीक्षेत्र, वृन्दावन, गोकुल, मथुरा, सीताकुंड, बद्रिकाश्रम आदि स्थानों का भ्रमण किया । 12 वर्षों के देशाटन में उनकी भेंट देश के अन्य बड़े महापुरुषों से हुई ।
दूसरी बार उन्होंने दक्षिण भारत के संतों से भेंट की और धर्म के सच्चे स्वरूप का अध्ययन किया ।असम लौटकर उन्होंने एकशरण नाम धर्म की स्थापना की । इसे केवलीया या महापुरुषीया धर्म भी कहते हैं । उन्होंने मूइर्तपूजा के बदले भगवान के नाम को अधिक महत्व दिया ।
इसलिए नामघरों में मूर्तिपूजा नहीं होती । उन्होंने भाओना अर्थात् पौराणिक नाटकों के अभिनय तथा नृत्य-संगीत के द्वारा धर्म प्रचार किया और अनेक पुस्तकों की रचना कीं । सन् 1568 ई. में भीषण ज्वर के कारण उनका देहान्त हो गया ।